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________________ ३२ (४) पंचाध्यायी भाग १ गाथा १६७-६८ में कहा है कि " 'क्रम' धातु है जो पाद विक्षेप अर्थ में प्रसिद्ध है" गमनमें पैर दायाँ बायाँ क्रमसर ही चलते हैं उलटे क्रमसे नही चलता इसप्रकार द्रव्योंकी पर्याय भी क्रमबद्ध होती है, जो अपने अपने अवसरमे प्रगट होती है, उसमें कोई समय पहिले को पीछे और पीछेवाली पहिले ऐसे उलटी सीधी नहीं होती अतः प्रत्येक पर्याय अपने स्व समयमे ही क्रमानुसार प्रगट होती रहती है। (५) पर्यायको क्रमभावी भी कहनेमें आता है, श्री प्रमेयकमलमार्तण्ड न्यायशास्त्रमे [ ३, परोक्ष परि० सू० ३ गाथा १७-१८ की टीका में ] कहा है कि 'पूर्वोत्तर चारिणोः कृतिकाशकटोदयादिस्वरूपयोः कार्यकारणयोः श्चाग्नि धुमादिस्वरूपयोः इति । वे नक्षत्रोंका दृष्टान्तसे भी सिद्ध होता है कि जैसे नक्षत्रोके गमनका क्रमभावीपना कभी भी निश्चित क्रमको छोड़कर उलटा नही होता वैसे ही, द्रव्योंकी प्रत्येक पर्यायोंका उत्पाद व्ययरूप प्रवाहका क्रम अपने निश्चित क्रमको छोड़कर कभी भी उलटा सीधा नही होता परन्तु उसका निश्चित स्व समयमे उत्पाद होता रहता है। (६) केवली-सर्वज्ञका ज्ञानके प्रति-सर्वज्ञेयों सर्वद्रव्योंकी त्रिकालवति सर्व पर्यायें ज्ञेयपनासे निश्चित ही है और क्रमबद्ध है उसकी सिद्धि करनेके लिये प्रवचनसार गाथा ६६ की टीकामे बहुत स्पष्ट कथन है विशेष देखो, पाटनी ग्रन्थमाला द्वारा प्रकाशित प्र० सार गाथागाथा पृष्ठ १२ टीका और भावार्थ ___ २७-२६ " ४४ ३६ ४१ ४८-४६ ४६ ४८ ५५ से ५८. ५१ ५६ १२४-२६ "
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
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