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________________ २६१ अध्याय २ उपसंहार लिया है, क्योंकि धर्मका प्रारंभ औपशमिक सम्यक्त्वसे होता है; सम्यक्त्व प्राप्त होनेके बाद आगे बढने पर कुछ जीवोंके प्रौपशमिक चारित्र होता है इसलिए दूसरा औपशमिक चारित्र कहा है। इन दो के अतिरिक्त अन्य कोई औपशमिक भाव नहीं है। [ सूत्र ३ ] जो जो जीव धर्मके प्रारम्भमें प्रगट होनेवाले औपशमिक सम्यक्त्व को पारिवामिकभावके आश्रयसे प्राप्त करते हैं वे अपनेमें शुद्धिको बढाते बढाते अन्तमें संपूर्ण शुद्धता प्राप्त कर लेते हैं, इसलिये उन्हें सम्यक्त्व और चारित्र की पूर्णता होनेके अतिरिक्त ज्ञान, दर्शन, दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीयं गुणोंकी पूर्णता प्रगट होती है । इन नौ भावोंकी प्राप्ति क्षायिकभाव से पर्याय में होती है, इसलिये फिर कभी विकार नही होता और वे जीव अनन्त काल तक प्रतिसमय सम्पूर्ण आनन्द भोगते हैं; इसलिये चौथे सूत्रमें यह नौ भाव बतलाये हैं । उन्हें नव लब्धि भी कहते हैं। सम्यक्ज्ञानका विकास कम होनेपर भी सम्यग्दर्शन-सम्यग्चारित्र के बलसे वीतरागता प्रगट होती है, इसलिये उन दो शुद्ध पर्यायोके प्रगट होनेके बाद शेष सात क्षायिक पर्याय एक साथ प्रगट होती है, तब सम्यरज्ञानके पूर्ण होनेपर केवलज्ञान भी प्रगट होता है। [ सूत्र ४ ] __ जीवमें अनादिकालसे विकार बना हुआ है फिर भी उसके ज्ञान, दर्शन और वीर्य गुण सर्वथा नष्ट नही होते, उनका विकास कम बढ अशतः रहता है। उपशम सम्यक्त्व द्वारा अनादिकालीन अज्ञान को दूर करने के वाद साधक जीवको क्षायोपशमिक सम्यक्त्व होता है, और उन्हे क्रमशः चारित्र प्रगट होता है, वे सब क्षायोपशमिकभाव है। [ सूत्र ५ ] जीव अनेक प्रकारका विकार करता है और उसके फलस्वरूप चतुगतिमें भ्रमण करता है। उसमे उसे स्वस्वरूपको विपरीत श्रद्धा, विपरीतज्ञान और विपरीत प्रवृत्ति होती है, और इससे उसे कषाय भी होती है। और फिर सम्यग्ज्ञान होनेके बाद पूर्णता प्राप्त करनेसे पूर्व प्रांशिक कषाय होती है जिससे उसकी भिन्न २ लेश्याएं होती हैं । जीव स्वरूपका प्राश्रय छोड कर पराश्रय करता है इसलिये रागादि विकार होते हैं, उसे औदयिकभाव कहते है । मोह सम्बन्धी यह भाव ही ससार है। [ सूत्र ६]
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
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