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________________ २७४ मोक्षशास्त्र प्रदेशतोऽसंख्येयगुणं प्राक्तैजसात् ॥ ३८ ॥ अर्थ- [ प्रदेशतः ] प्रदेशोंकी अपेक्षासे [ तैजसात् प्राक् ] तैजस शरीरसे पहिलेके शरीर [ असंख्येयगुणं ] असंख्यात्गुरो हैं। टीका प्रौदारिक शरीरके प्रदेशोंकी अपेक्षा असंख्यातगुणे प्रदेश, वैक्रियिक शरीरके है, और वैक्रियिक शरीरको अपेक्षा, असंख्यातगुणे प्रदेश आहारक शरीरके हैं ॥ ३८ ॥ अनन्तगुणे परे ॥ ३६ ॥ अर्थ - [ परे ] शेष दो शरीर [ अनन्तगुणे ] अनन्तगुणे परमाणु ( प्रदेश ) वाले हैं अर्थात् श्राहारक शरीरकी अपेक्षा अनन्तगुणे प्रदेश तैजस शरीरमें होते है और तेजस शरीर की अपेक्षा अनन्तगुणे प्रदेश कार्मरण शरीर में होते हैं । टीका आगे आगेके शरीरोंमें प्रदेशोंकी संख्या अधिक होने पर भी उनका मिलाप लोहे के पिंडके समान सघन होता है इसलिये वे अल्परूप होते हैं । यहाँ प्रदेश कहनेका अर्थ परमाणु समझना चाहिये ॥ ३६ ॥ तेजस और कार्मणशरीरको विशेषता प्रतिघाते ॥ ४० ॥ अर्थ- तेजस और कारण ये दोनों शरीर [ प्रप्रतिघाते ] अप्रतिघात अर्थात् वाधा रहित हैं । टीका ये दोनों शरीर लोकके अन्त तक हर जगह जा सकते हैं और चाहे जसि निकल सकते हैं । वैक्रियिक और ग्राहारक शरीर हर किसी में प्रवेश कर सकता है, परन्तु वैकिमि शरीर सनाली तक ही गमन कर सकता है । आहारक शरीरका गमन अधिक से अधिक बढ़ाई द्वीप पर्यंत जहाँ केवलो वोर केवल होने हैं वहाँ तक होता है। मनुष्यका वैकिलिक गरी
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
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