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________________ अध्याय २ सूत्र २५-२६-२७ २६५ गमन करता है तब मार्गमें एक दो या तीन समय तक अनाहारक रहता है । उस समयमे कार्मरणयोगके कारण पुद्गलकर्मका तथा तैजसवर्गणाका ग्रहण होता है, किन्तु नोकर्म-पुद्गलोंका ग्रहण नही होता ॥ २५ ॥ विग्रहगतिमें जीव और पुद्गलोंका गमन कैसे होता है ? अनुश्रेणि गतिः ॥२६॥ अर्थ-[ गति ]जीव पुद्गलोका गमन [ अनुश्रेणि ] श्रेणीके अनुसार ही होता है। टीका १. श्रेणि-लोकके मध्यभागसे ऊपर, नीचे तथा तिर्यक् दिशामें क्रमशः हारबद्ध रचनावाले प्रदेशोंकी पंक्ति ( Line ) को श्रेणि कहते हैं । २-विग्रहगतिमें आकाश प्रदेशोकी सीधी पंक्ति पर ही गमन होता है । विदिशामें गमन नहीं होता। जब पुद्गलका शुद्ध परमाणु अति शीघ्र गमन करके एक समयमे १४ राजु गमन करता है तब वह श्रेरिणबद्ध सीधा ही गमन करता है। ३. उपरोक्त श्रेणिकी छह दिशाएं होती हैं (१)-पूर्वसे पश्चिम, (२)-उत्तरसे दक्षिण, (३)-ऊपरसे नीचे, तथा अन्य तीन उससे उल्टेरूप में अर्थात् (४)-पश्चिमसे पूर्व, (५)-दक्षिणसे उत्तर और (६)-नीचेसे ऊपर। ४. प्रश्न-यह जीवाधिकार है, तब फिर इसमें पुद्गलका विषय क्यों लिया गया है ? उत्तर-जीव और पुद्गलका निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध बतानेके लिये तथा यह बतानेके लिये कि जीव और पुद्गल दोनों अपनी स्वतंत्र योग्यतासे गमन करते है,-पुद्गलका भी विषय लिया गया है ॥ २६ ॥ मुक्त जीवोंकी गति कैसी होती है ? अविग्रहा जीवस्य ॥२७॥
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
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