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________________ २६४ मोक्षशास्त्र सैनी किसे कहते हैं ? संज्ञिनः समनस्काः ॥ २४ ॥ अर्थ-[ समनस्काः ] मनसहित जीवोंको [ संज्ञिनः ] सैनी कहते हैं। टीका सैनी जीव पंचेन्द्रिय ही होते है ( देखो अध्याय २ सूत्र ११ तथा, २१ की टीका ) जीवके हिताहितकी प्रवृत्ति मनके द्वारा होती है। पंचेन्द्रिय जीवोंमें सैनी और असैनी ऐसे दो भेद होते है, सैनी अर्थात् संज्ञी-संज्ञावाला प्राणी समझना चाहिये । 'संज्ञा' के अनेक अर्थ हैं उनमें से यहाँ 'मन' अर्थ लेना चाहिए ॥ २४॥ मनके द्वारा हिताहितकी प्रवृचि होती है किन्तु शरीर के छूट जाने पर विग्रहगतिमें [ नये शरीरकी प्राप्ति के लिये गमन करते हुए जीवको ] मन नहीं है फिर भी उसे कर्मका आश्रय होता है, इसका क्या कारण है ? विग्रहगतो कर्मयोगः ॥ २५ ॥ अर्थ-[ विग्रहगतौ ] विग्रहगतिमें अर्थात् नये शरीरके लिये गमनमें [ कर्मयोगः ] कार्मणकाययोग होता है । टीका (१) विग्रहगति--एक शरीरको छोड़कर दूसरे शरीरकी प्राप्ति के लिये गमन करना विग्रहगति है । यहाँ विग्रहका अर्थ शरीर है। कर्मयोग-कर्मोके समूहको कार्मण शरीर कहते है । आत्मप्रदेशोंके परिस्पन्दनको योग कहते हैं इस परिस्पन्दनके समय कार्मण शरीर निमित्तरूप है इसलिये उसे कर्मयोग अथवा कार्मणकाययोग कहते हैं, और इसलिये विग्रहगतिमें भी नये कर्मोका आश्रव होता है। [ देखो सूत्र ४४ की टीका ] २-मरण होने पर नवीन शरीरको ग्रहण करनेके लिये जीव जब
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
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