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________________ अध्याय २ सूत्र १० २४३ सूचित करता है कि पहिले उन जीवोंको संसारी अवस्था थी और फिर उन्होने यथार्थ समझ करके उस अशुद्ध अवस्थाका व्यय करके मुक्तावस्था प्रगट की है। ३. संसारका अर्थ-'स'= भलीभाति, 'स+घञ् = खिसक जाना । अपने शुद्ध स्वरूपसे भलीभाँति खिसक जाना ( हट जाना ) सो संसार है। जीवका संसार स्त्री, पुत्र, लक्ष्मी, मकान इत्यादि नही है वे तो जगत् के स्वतन्त्र पदार्थ है । जीव उन पदार्थों में अपनेपनकी कल्पना करके उन्हे इष्ट अनिष्ट मानता है इत्यादि अशुद्धभावको संसार कहते हैं । ४. सूत्र में 'च' शब्द है, च शब्दके समुच्चय और अन्वाचय ऐसे दो अर्थ है, उनमेसे यहाँ अन्वाचयका अर्थ बतानेके लिये च शब्द का प्रयोग किया है । ( एक को प्रधानरूपसे और दूसरेको गौणरूपसे बताना 'अन्वाचय' शब्दका अर्थ है ) ससारी और मुक्त जीवोंमेसे संसारी जीव प्रधानता से उपयोगवान् है और मुक्त जीव गोरगरूपसे उपयोगवान है, यह बतानेके लिये इस सूत्रमे 'च' शब्दका प्रयोग किया है। ( उपयोग का अनुसंधान सू० ८-९ से चला आता है।) ५. जीवकी संसारी दशा होनेका कारण आत्मस्वरूप संबंधी भ्रम है; उस भ्रमको मिथ्यादर्शन कहते है । उस भूलरूप मिथ्यादर्शनके कारणसे जीव पाँच प्रकारके परिवर्तन किया करते है-ससार चक्र चलता रहता है। ६. जीव अपनी भूलसे अनादिकालसे मिथ्यावृष्टि है; वह स्वतः अपनी पात्रताका विकास करके सत्समागमसे सम्यग्दृष्टि होता है। मिथ्यादृष्टिरूप अवस्थाके कारण परिभ्रमण अर्थात् परिवर्तन होता है, उस परिभ्रमणको संसार कहते हैं, जीवको परके प्रति एकत्वबुद्धि होनेसे मिथ्यादृष्टित्व है । जब तक जीवका लक्ष पर पदार्थ पर है अर्थात् वह यह मानता है कि परसे मुझे हानि-लाभ होता है, राग करने लायक है तबतक उसे परवस्तुरूप द्रव्यकर्म और नोकर्मके साथ निमित्त नैमित्तिक सबंध होता है। उस परिवर्तनके पांच भेद होते है-(१) द्रव्यपरिवर्तन, (२) क्षेत्रपरिवर्तन, (३) कालपरिवर्तन, (४) भावपरिवर्तन, और (५) भावपरिवर्तन। परिवर्तनको संसरण अथवा परिवर्तन भी कहते है।
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
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