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________________ २४२ मोक्षशास्त्र हैं इसलिये अभेदापेक्षासे मात्मा दर्शनज्ञानस्वरूप है अर्थात् दर्शन- श्रात्मा है और ज्ञान आत्मा है ऐसा समझना चाहिए । द्रव्य और गुण एक दूसरे से अलग नहीं हो सकते और द्रव्य का एक गुण उसके दूसरे गुरणसे अलग नहीं हो सकता । यह अपेक्षा लक्षमें रखकर दर्शन स्व-पर दर्शक है और ज्ञान स्व-पर ज्ञायक है । श्रमेददृष्टिकी अपेक्षासे इसप्रकार अर्थ होता है | [ देखो श्री नियमसार गाथा १७१ तथा श्री समयसारमें दर्शन तथा ज्ञान का निश्चयनयसे अर्थं पृष्ठ ४२० से ४२७ ] ६. दर्शनोपयोग और ज्ञानोपयोग केवली भगवान् को युगपत् होता है केवली भगवान् को दर्शनोपयोग और ज्ञानोपयोग एक ही साथ होता है और छद्मस्थको क्रमशः होता है । केवली भगवान्को उपचारसे उपयोग कहा जाता है ॥ ६ ॥ जीवके भेद संसारिणो मुक्ताश्च ॥ १० ॥ अर्थ — जीव [ संसारिणः ] संसारी [ च ] और [ मुक्ताः ] मुक्त ऐसे दो प्रकारके है । कर्म सहित जीवोंको संसारी और कर्म रहित जीवोको मुक्त कहते है । टीका १. जीवोंकी वर्तमान दशाके ये भेद हैं, वे भेद पर्यायदृष्टिसे हैं । द्रव्यदृष्टि से सब जीव एक समान हैं । पर्यायोंके भेद दिखानेवाला व्यवहार, परमार्थको समझानेके लिये कहा जाता है उसे पकड़ रखनेके लिये नही । इससे यह समझना चाहिए कि पर्यायमें चाहे जैसे भेद हो तथापि त्रैकालिक ध्रुवस्वरूपमे कभी भेद नही होता । "सर्व जीव हैं सिद्ध सम, जो समझे सो होय ।" [ आत्मसिद्धि शास्त्र गाथा १३५ ] २. संसारी जीव अनंतानंत है । 'मुक्ताः' शब्द बहुवचनसूचक है इससे यह समझना चाहिये कि मुक्त जीव अनन्त है । 'मुक्ताः' शब्द यह भी
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
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