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________________ अध्याय २ सूत्र ६ २३७ दिरूप ) होता हुआ देखनेमें नहीं पाता और नित्य जड़ लक्षणवाला शरीरादि पुद्गलद्रव्य कभी जीवद्रव्यरूप होता हुआ देखने में नहीं आता, क्योकि उपयोग और जड़त्वके एकरूप होने में प्रकाश और अंधकारकी भाँति विरोध है। जड़ और चैतन्य कभी भी एक नहीं हो सकते । वे दोनों सर्वथा भिन्न २ हैं, कभी भी, किसी भी प्रकारसे एकरूप नही होते, इसलिये हे जीव तू सब प्रकारसे प्रसन्न हो ! अपना चित्त उज्ज्वल करके सावधान हो और स्वद्रव्य को ही 'यह मेरा है' ऐसा अनुभव कर । ऐसा श्री गुरु का उपदेश है। ( समयसार) जीव शरीर और द्रव्यकर्म एक आकाश प्रदेशमें बंधरूप रहते है इसलिये वे बहुतसे मिले हुये पदार्थोमेंसे एक जीव पदार्थको अलग जाननेके लिये इस सूत्र में जीवका लक्षण कहा गया है ॥ ८ ॥ ( सर्वार्थसिद्धि भाग २ पृष्ठ २७-२८) उपयोगके भेद स द्विविधोऽष्टचतुर्भेदः॥ ६॥ अर्थ-[सः] वह उपयोग [ द्विविधः ] ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोगके भेदसे दो प्रकारका है; और वे क्रमशः [ प्रष्ट चतुः भेदः ] आठ और चार भेद सहित है अर्थात् ज्ञानोपयोगके मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय, केवल ( यह पाँच सम्यग्ज्ञान ) और कुमति, कुश्रुत तथा कुअवधि (यह तीन मिथ्याज्ञान) इसप्रकार आठ भेद है। तथा दर्शनोपयोगके चक्षु, अचक्षु, अवधि तथा केवल इसप्रकार चार भेद हैं । इसप्रकार ज्ञानके आठ और दर्शनके चार भेद मिलकर उपयोगके कुल बारह भेद हैं । टीका १. इस सूत्रमें उपयोगके भेद बताये हैं, क्योंकि यदि भेद बताये हों तो जिज्ञासु जल्दी समझ लेता है, इसलिये कहा है कि-"सामान्य शाखतोनूनं, विशेषो बलवान् भवेत्" अर्थात् सामान्यशाखसे विशेष बलवान है। यहाँ सामान्यका अर्थ है संक्षेपमें कहनेवाला और विशेषका अर्थ है भेद
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
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