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________________ २३४ मोक्षशास्त्र हो जाती है तब भव्यत्वका व्यवहार मिट जाता है। ( देखो अध्याय १० सूत्र ३) ३. अनादि अज्ञानी जीवके कौनसे भाव कभी नहीं हुए ? (१) यह बात लक्षमें रखना चाहिए कि जीवके अनादिकालसे ज्ञान, दर्शन और वीर्य क्षायोपशमिकभावरूपसे हैं किन्तु वे कहीं धर्मके कारण नहीं हैं। (२) अपने स्वरूपकी असावधानी-जो मिथ्यादर्शनरूप मोह उसका अभावरूप श्रीपशमिकभाव अनादि अज्ञानी जीवके कभी प्रगट नही हुआ। जब जीव सम्यग्दर्शन प्रगट करता है तब दर्शनमोहका ( मिथ्यात्वका ) उपशम होता है। सम्यग्दर्शन अपूर्व है, क्योंकि जीवके कभी भी पहले वह भाव नही हुआ था। इस औपशमिकभावके होनेके बाद मोहसे सम्बन्ध रखनेवाले क्षायोपशमिक और क्षायिकभाव उस जीवके प्रगट हुये बिना नही रहते, वह जीव अवश्य ही मोक्षावस्थाको प्रगट करता है। ४. उपरोक्त औपशमिकादि तीन भाव किस विधिसे प्रगट होते हैं ? (१) जब जीव अपने इन भावोंका स्वरूप समझकर त्रिकाल ध्रुवरूप ( सकलनिरावण ) अखंड एक अविनश्वर शुद्ध पारिणामिकभावकी ओर अपना लक्ष स्थिर करता है तब उपरोक्त तीन भाव प्रगट होते है। 'मैं खण्ड-ज्ञानरूप हूँ' ऐसी भावनासे औपशमिकादिभाव प्रगट नहीं होते । [ श्री समयसार हिन्दी जयसेनाचार्यकृत टीका पृष्ठ ४८३ ] (२) अपने अविनश्वर शुद्ध पारिणामिकभावकी ओरके झुकावको अध्यात्म भाषामे 'निश्चयनयका आश्रय' कहा जाता है। निश्चयनयके श्राश्रयसे शुद्ध पर्याय प्रगट होती है । निश्चयका विषय अखण्ड अविनश्वर शुद्ध पारिणामिकभाव अर्थात् ज्ञायकभाव है । व्यवहारनयके आश्रयसे शुद्धता प्रगट नहीं होती किन्तु अशुद्धता प्रगट होती है (श्री समयसार गाथा ११)
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
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