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________________ अध्याय २ सूत्र ४ २२७ अर्थ--[ सम्यक्त्व ] औपशमिक सम्यक्त्व और [ चारित्रे ] औपशमिक चारित्र-इसप्रकार प्रौपशमिकभावके दो भेद है। टीका (१) औपशमिकसम्यक्त्व-जब जीवके अपने सत्यपुरुषार्थसे औपशमिक सम्यक्त्व प्रगट होता है तब जडकर्मोके साथ निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध ऐसा है कि वे मिथ्यात्वकर्मका और अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया और लोभका स्वयं उपशम हो जाता है। अनादि मिथ्यादृष्टि जीवोके तथा किसी सादिमिथ्यादृष्टिके मिथ्यात्वकी एक और अनन्तानुबन्धीकी चार इसप्रकार कुल पाँच प्रकृतियाँ उपशमरूप होती है, और शेष सादि मिथ्यादृष्टिके मिथ्यात्व सम्यमिथ्यात्व और सम्यक्त्वप्रकृति-यह तीन तथा अनन्तानुबन्धीकी चार, यों कुल सात प्रकृतियोका उपशम होता है । जीवके इस भावको औपशमिक सम्यक्त्व कहा जाता है। (२) औपशमिक चारित्र-जब जिस चारित्रभावसे उपशम श्रेणीके योग्य भाव प्रगट करता है उसे औपशमिक चारित्र कहते हैं । उस समय मोहनीय कर्मकी अप्रत्याख्यानावरणादि २१ प्रकृतियोका स्वयं उपशम हो जाता है। प्रश्न-जड़कर्म प्रकृतिका नाम 'सम्यक्त्व' क्यों है ? उत्तर-सम्यग्दर्शनके साथ-सहचरित उदय होनेसे उपचारसे कर्मप्रकृतिको 'सम्यक्त्व' नाम दिया गया है ॥३॥ [ श्री धवला पुस्तक ६ पृष्ठ ३६] क्षायिकमावके नव भेद ज्ञानदर्शनदानलाभभोगोपभोगवीर्याणि च ॥४॥ अर्थ-[ज्ञान दर्शन दान लाभ भोग उपभोग वीर्याणि ] केवलज्ञान, केवलदर्शन, क्षायिकदान, क्षायिकलाभ, क्षायिकभोग, क्षायिकउपभोग, क्षायिकवीर्य, तथा [च ] च कहने पर, क्षायिकसम्यक्त्व और क्षायिकचारित्र-इसप्रकार क्षायिकभावके नव भेद है।
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
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