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________________ मोक्षशास्त्र अध्याय दूसरा पहिले अध्यायमें सम्यग्दर्शनके विषयका उपदेश देते हुए प्रारम्भमें [अ० १ सू० ४ में ] जीवादिक तत्त्व कहे थे। उनमेंसे जीव तत्त्वके भाव, उनका लक्षण और शरीरके साथके सम्बन्धका वर्णन इस दूसरे अध्यायमें है । पहिले जीवके स्वतत्त्व (निजभाव ) बतानेके लिए सूत्र कहते हैं: जीवके असाधारण भाव औपशमिकक्षायिको भावौ मिश्रश्च जीवस्य स्वतत्त्वमौदयिकपारिणामिकौ च ॥१॥ अर्थ-[ जीवस्य ] जीवके [ प्रौपशमिकक्षायिको 1 औपशमिक और क्षायिक [ भावी ] भाव [ च मिश्रः ] और मिश्र तथा [ौदयिकपारिणामिकौ च ] औदयिक और पारिवामिक यह पाँच भाव [स्वतत्त्वम्] निजभाव है अर्थात् यह जीवके अतिरिक्त दूसरेमें नहीं होते। टीका पाँच भावोंकी व्याख्या (१) औपशमिकभाव-आत्माके पुरुषार्थ द्वारा अशुद्धताका प्रगट न होना अर्थात् दब जाना । आत्माके इस भावको औपशमिकभाव कहते हैं, यह जीवकी एक समयमात्रकी पर्याय है, वह एक एक समय करके अंतमुंहूर्त तक रहती है, किन्तु एक समयमें एक ही अवस्था होती है। और उसी समय आत्माके पुरुषार्थका निमित्त पाकर जड़ कर्मका प्रगटरूप फल जड़ कर्ममें न पाना सो कर्मका उपशम है। (२) क्षायिकभाव-आत्मा के पुरुषार्थसे किसी गुणकी शुद्ध अवस्थाका प्रगट होना सो क्षायिकभाव है। यह भी जीवकी एक समयमात्रकी
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
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