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________________ अध्याय १ परिशिष्ट ५ २१३ सर्वज्ञ व्यवहारसे परको जानता है उसका अर्थ (१२) परमात्मप्रकाश शास्त्र गा. ५२ की सं. टीकामें ( पत्र नं. ५५) कहा है कि "यह आत्मा व्यवहार नयसे केवलज्ञान द्वारा लोकालोकको जानता है और शरीरमें रहने पर भी निश्चयनयसे अपने आत्मस्वरूपको जानता है, इसकारण ज्ञानकी अपेक्षा तो व्यवहारनयसे सर्वगत है, प्रदेशोंकी अपेक्षा नहीं है । जैसे रूपवाले पदार्थोंको नेत्र देखते हैं, परन्तु उनसे तन्मय नही होता । यहाँ कोई प्रश्न करता है कि-जो व्यवहारनयसे लोकालोकको जानता है, और निश्चयनयसे नहीं, तो सर्वज्ञपना व्यवहारनयसे हुआ निश्चयकर न हुआ ? उसका समाधान करते है-जैसे अपनी आत्माको तन्मयी होकर जानता है, उसी तरह परद्रव्यको तन्मयीपनेसे नहीं जानता, भिन्नस्वरूप जानता है, इस कारण व्यवहारनयसे कहा, न च परिज्ञाना भावात् । ] कुछ परिज्ञानके अभावसे नहीं कहा । ( ज्ञानकर जानपना तो निज और परका समान है) यदि जिस तरह निजको तन्मयी होकर निश्चयसे जानता है, उसी तरह यदि परको भी तन्मयी होकर जाने, तो परके सुख दुःख, राग, द्वेषके ज्ञान होने पर सुखी दुःखी, रागी, द्वेषी होवे, यह बड़ा दूषण प्राप्त हो ।" (१३) इस प्रकार समयसारजी पत्र, ४६६-६७, गाथा ३५६ से ३६५ की सं. टीकामें श्री जयसेनाचार्यने भी कहा है "....यदि व्यवहारेण परद्रव्यं जानाति तर्हि निश्चयेन सर्वज्ञो न भवतीति पूर्वपक्षे परिहारमाह यथा स्वकीय सुखादिकं तन्मयो भूत्वा जानाति तथा बहिर्द्रव्यं न जानाति तेन कारणेन व्यवहारः । यदि पुनः परकीय सुखादिकमात्मसुखादिवत्तन्मयो भूत्वा जानाति तहि यथा स्वकीय सवेदने सुखी भवति तथा परकीय सुख दुःख संवेदनकाले सुखी दुःखी च प्राप्नोति न च तथा । व्यवहारस्तथापिछद्मस्थ जनापेक्षया सोऽपि निश्चय एवेति ।" केवलज्ञान नामक पर्यायका निश्चय स्वभाव (१४) पचास्तिकाय शास्त्रकी गाथा ४६ की टीकामे श्री जयसेनाचार्य ने कहा है कि-....."तथा जीवे निश्चयनयेन क्रम' करण व्यव
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
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