SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 271
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १९३ अध्याय १ परिशिष्ट ४ उत्तर-प्ररहन्त देवादिका श्रद्धान होनेसे और कुदेवादिका श्रद्धान दूर होनेसे गृहीत मिथ्यात्वका अभाव होता है, इस अपेक्षासे उसे सम्यग्दृष्टि कहा है, किन्तु सम्यक्त्वका सर्वथा लक्षण यह नहीं है, क्योंकि-द्रव्यलिंगी मुनि आदि व्यवहार धर्मके धारक मिथ्यादृष्टियोंको भी ऐसा श्रद्धान होता है। अरहन्त देवादिका श्रद्धान होनेपर सम्यक्त्व हो या न हो किन्तु अरहन्तादिका श्रद्धान हुए बिना तत्त्वार्थश्रद्धानरूप सम्यक्त्व कभी भी नही होता । इसलिए अरहन्तादिके श्रद्धानको अन्वयरूप कारण जानकर कारणमे कार्यका उपचार करके इस श्रद्धानको सम्यक्त्व कहा है। और इसीलिए उसका नाम व्यवहारसम्यक्त्व है । अथवा जिसे तत्त्वार्थश्रद्धान होता है उसे सच्चे अरहन्तादिके स्वरूपका श्रद्धान अवश्य होता है। तत्त्वार्थश्रद्धानके बिना अरहन्तादिका श्रद्धान पक्षसे करे तथापि यथावत् स्वरूपकी पहिचान सहित श्रद्धान नही होता, तथा जिसे सच्चे अरहन्तादिके स्वरूपका श्रद्धान हो उसे तत्त्वार्थश्रद्धान अवश्य ही होता है, क्योकि अरहन्तादिके स्वरूपको पहिचानने पर जीव-अजीव-आस्रवादिकी पहिचान होती है। इसप्रकार उसे परस्पर अविनाभावी जानकर कही कही अरहन्तादिके श्रद्धानको सम्यक्त्व कहा है। (४) प्रश्न-नरकादिके जीवोंको देव-कुदेवादिका व्यवहार नही है फिर भी उनको सम्यक्त्व होता है, इसलिए सम्यक्त्वके होनेपर अरहंतादि का श्रद्धान होता ही है, ऐसा नियम स भवित नही है। उत्तर-सात तत्त्वोके श्रद्धानमें अरहन्तादिका श्रद्धान गभित है, क्योंकि वह तत्त्वश्रद्धानमे मोक्ष तत्त्वको सर्वोत्कृष्ट मानता है। और मोक्षतत्त्व अरहन्त सिद्धका ही लक्षण है, तथा जो लक्षणको उत्कृष्ट मानता है वह उसके लक्ष्यको भी उत्कृष्ट अवश्य मानेगा। इसलिये उन्हीको सर्वोत्कृष्ट माना और अन्यको नही माना यही उसे देवका श्रद्धान हुआ कहलाया। और मोक्षका कारण सवर-निर्जरा है इसलिये उसे भी वह उत्कृष्ट मानता है। तथा संवर-निर्जराके धारक मुख्यतया मुनिराज है इसलिये वह मुनिराजको उत्तम मानता है और अन्यको उत्तम नहीं मानता यही उसका २५
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy