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________________ अध्याय १ परिशिष्ट १ १५३ उचर-सिद्धोंके निश्चयसम्यग्दर्शन होता है। प्रश्न-व्यवहारसम्यग्दर्शन और निश्चयसम्यग्दर्शनमें क्या अन्तर है उत्तर-जीवादि नव तत्त्व और सच्चे देव गुरु शास्त्रकी सविकल्प श्रद्धाको व्यवहारसम्यक्त्व कहते हैं । जो जीव उस विकल्पका अभाव करके अपने शुद्धात्माकी ओर उन्मुख होकर निश्चयसम्यग्दर्शन प्रगट करता है उसे पहिले व्यवहारसम्यक्त्व था ऐसा कहा जाता है। जो जीव निश्चयसम्यग्दर्शनको प्रगट नही करता उसका वह व्यवहाराभाससम्यक्त्व है । जो सीका अभाव करके निश्चयसम्यग्दर्शन प्रगट करता है उसके व्यवहारसम्यग्दर्शन उपचारसे ( अर्थात् व्ययरूपमें-अभावरूपमें ) निश्चयसम्यग्दर्शन का कारण कहा जाता है। सम्यग्दृष्टि जीवको विपरीताभिनिवेश रहित जो आत्माका श्रद्धान है सो निश्चयसम्यग्दर्शन है, और देव, गुरु धर्मादिका श्रद्धान व्यवहारसम्यग्दर्शन है इसप्रकार एक कालमे सम्यग्दृष्टिके दोनो सम्यग्दर्शन होते हैं। कुछ मिथ्यादृष्टियोको द्रव्यलिगी मुनियोंको और कुछ अभव्य जीवोको देव गुरु धर्मादिका श्रद्धान होता है, किन्तु वह आभासमात्र होता है, क्योकि उनके निश्चय सम्यक्त्व नही है इसलिये उनका व्यवहार सम्यक्त्व भी आभासरूप है [देखो देहलीसे प्रकाशित-मोक्षमार्गप्रकाशक पृष्ठ ४८६-४६०] देव गुरु धर्मके श्रद्धानमे प्रवृत्तिकी मुख्यता है । जो प्रवृत्तिमें अरहतादिको देवादि मानता है और अन्यको नहीं मानता उसे देवादिका श्रद्धानी कहा जाता है । तत्त्व श्रद्धानमे विचारकी मुख्यता है । जो ज्ञानमे जीवादि तत्त्वोंका विचार करता है उसे तत्त्वश्रद्धानी कहा जाता है। इन दोनोको समझनेके बाद कोई जीव स्वोन्मुख होकर रागका आशिक अभाव करके सम्यक्त्वको प्रगट करता है, इसलिये यह दोनों (-व्यवहार श्रद्धान ) इसी जीवके सम्यक्त्वके (उपचारसे) कारण कहे जाते है, किंतु उसका सद्भाव मिथ्यादृष्टिके भी संभव है इसलिये वह श्रद्धान व्यवहाराभास है।
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
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