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________________ अध्याय १ परिशिष्ट १ उसका तारतम्य-स्वरूप केवलज्ञानगम्य है। इस अपेक्षासे वह सम्यक्त्व निर्मल नहीं है । अत्यन्त निर्मल तत्त्वार्थ श्रद्धान-क्षायिक सम्यग्दर्शन है। [ मोक्षमार्गप्रकाशक अ०९] इन सभी सम्यक्त्वमें ज्ञानादिकी हीनाधिकता होने पर भी तुच्छ ज्ञानी तिर्यंचादिके तथा केवलीभगवान और सिद्धभगवानके सम्यक्त्व गुण तो समान ही कहा है, क्योंकि सबके अपने प्रात्माकी अथवा सात तत्त्वोंकी एकसी मान्यता है [ मोक्षमार्गप्रकाशक पृष्ठ ४७५ देहली] __ सम्यग्दृष्टिके व्यवहार सम्यक्त्वमें निश्चयसम्यक्त्व गर्भित है,-निरंतर गमन ( परिणमन ) रूप है, [ श्री टोडरमलजीकी चिट्ठी ] (१८) सम्यक्त्वकी निर्मलता में निम्नप्रकार पाँच मेद भी किये जाते हैं १-समल अगाढ, २-निर्मल, ३-गाढ, ४-अवगाढ और ५-परमावगाढ़। वेदक सम्यक्त्व समल अगाढ़ है, औपशमिक और क्षायिक सम्यक्त्व निर्मल है, क्षायिक सम्यक्त्व गाढ़ है । श्रग और अग बाह्य सहित जैनशास्त्रों के अवगाहनसे उत्पन्न दृष्टि अवगाढ़ सम्यक्त्व है, श्रुतकेवलीको जो तत्त्वश्रद्धान है उसे अवगाढ़ सम्यक्त्व कहते हैं परमावधिज्ञानीके और केवलज्ञानी के जो तत्त्वश्रद्धान है उसे परमावगाढ़ सम्यक्त्व कहते हैं। यह दो भेद ज्ञानके सहकारीभावकी अपेक्षासे है [ मोक्षमार्गप्रकाशक अ० ६ ] __ "श्रीपशमिक सम्यक्त्वकी अपेक्षा क्षायिक सम्यक्त्व अधिक विशुद्ध है", [ देखो तत्त्वार्थ राजवातिक अध्याय २ सूत्र १ नीचेकी कारिका १०११, तथा उसके नीचे संस्कृत टीका ] "क्षायोपशमिक सम्यक्त्वसे क्षायिक सम्यक्त्वकी विशुद्धि अनंत गुणी अधिक है", [ देखो तत्त्वार्थराजवार्तिक अध्याय २ सूत्र १ कारिका १२ नीचेकी संस्कृत टीका ]
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
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