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________________ मोक्षशास्त्र ( २ ) नयार्थ- शुद्ध निश्चयनयसे आत्मा परमानंदस्वरूप है; पूर्णशुद्धता प्रगट हुई वह सभूत व्यवहारनयका विषय है । कर्म दूर हुए वह असद्भूत अनुपचरित व्यवहारनयका विषय है । इसप्रकार प्रत्येक स्थान पर नयसे समझना चाहिये । यदि नयोंके अभिप्रायको न समझे तो वास्तविक अर्थ समझमे नही आता । यथार्थ ज्ञानमें साधकके सुनय होते ही हैं । ११४ 'ज्ञानावरणीय कर्मने ज्ञानको रोका' - ऐसा वाक्य हो वहाँ 'ज्ञानावरणीय नामका जड कर्म रोकता है, ऐसा कहना दो द्रव्योंका संबंध बतलानेवाला व्यवहारनयका कथन है, सत्यार्थ नही है । शास्त्रोंके सच्चे रहस्यको खोलनेके लिये नयार्थ होना चाहिये, नयार्थ को समझे बिना चरणानुयोगका कथन भी समझमें नही आता । गुरुका उपकार माननेका कथन श्राये वहाँ समझना चाहिये कि गुरु परद्रव्य है, इसलिये वह व्यवहारका कथन है और वह असद्भूतउपचरित व्यवहारनय है । परमात्म प्रकाश गाथा ७ तथा १४ के अर्थमे बताया गया है कि-असद्भुत का अर्थ 'मिथ्या' होता है । चरणानुयोगमे परद्रव्य छोड़ने की बात आये वहाँ समझना चाहिये कि वहाँ रागको छुड़ानेके लिये व्यवहारनयका कथन है । प्रवचनसार में शुद्धता और शुभरागकी मित्रता कही है, किन्तु वास्तवमे वहाँ उनके 'मित्रता' नही है, राग तो शुद्धताका शत्रु ही है, किन्तु चरणानुयोगके शास्त्रमें वैसा कहने की पद्धति है और वह व्यवहारनयका कथन है । अशुभसे बचने के लिये शुभ राग निमित्तमात्र मित्र कहा है; उसका भावार्थं तो यह है किवह वास्तवमे वीतरागताका शत्रु है किन्तु निमित्त बतानेके लिये व्यवहार नय द्वारा ऐसा ही कथन होता है । (३) मतार्थ — दूसरे विरुद्ध मत किसप्रकारसे मिथ्या हैं, उसका वर्णन करना सो मतार्थ है । चरणानुयोगमे कहे हुए व्यवहारव्रतादि करने से धर्म हो, ऐसी मान्यतावाले अन्यमत हैं जैनमत नही है, श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने भावपाहुड गाथा ८३ में कहा है कि - " पूजादिकमें और व्रतादि सहित होय सो तो पुण्य है और मोह क्षोभ रहित श्रात्माका परिणाम सो धर्म है ।
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
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