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________________ अध्याय १ सूत्र ३३ ११३ ११ - समभिरूढ़दृष्टिसे एवंभूतको देख = साधक अवस्थाके श्रारूढभावसे निश्चयको देख | १२ - एवंभूत दृष्टिसे समभिरूढ़ स्थिति कर = निश्वयदृष्टिसे समस्वभावके प्रति रूढ स्थिति कर । १३ - एवंभूतदृष्टिसे एवंभूत हो = निश्चयदृष्टिसे निश्चयरूप हो । १४- एवंभूत स्थिति से एवभूत दृष्टिको शमित कर = निश्चय स्थितिसे निवदृष्टिके विकल्पको शमित करदे | वास्तविकभाव लौकिक भावोंसे विरुद्ध होते हैं । प्रश्न – यदि व्यवहारनयसे अर्थात् व्याकरणके अनुसार जो प्रयोग ( अर्थ ) होता है उसे आप शब्दनयसे दूषित कहेगे तो लोक और शाखमें विरोध आयगा । उत्तर- -लोक न समझे इसलिये विरोध भले करें, यहाँ यथार्थ स्वरूप ( तत्त्व ) का विचार किया जा रहा है-परीक्षा की जा रही है । औषधि रोगीको इच्छानुसार नही होती । [ सर्वार्थसिद्धि पृष्ठ ५३४ ] जगत रोगी है ज्ञानीजन उसीके अनुकूल ( रुचिकर ) तत्त्वका स्वरूप ( श्रौषधि ) नही कहते, किन्तु वे वही कहते है जो यथार्थ स्वरूप होता है ।। ३३ ।। पाँच प्रकारसे जैन शास्त्रोंके अर्थ समझने की रीति प्रत्येक वाक्यका पाँच प्रकारसे अर्थ करना चाहिये: शब्दार्थ, नयार्थं, मतार्थ, आगमार्थ और भावार्थ । “परमार्थको नमस्कार" इस वाक्यका यहाँ पाँच प्रकारसे अर्थ किया जाता है: ( १ ) शब्दार्थ –'जो ध्यानरूपी अग्निके द्वारा कर्मकलंकको भस्म करके शुद्ध नित्य निरंजन ज्ञानमय हुए हैं उन परमात्माको में नमस्कार करता हूँ ।' यह परमात्माको नमस्कारका शब्दार्थ हुआ ।
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
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