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________________ अध्याय १ सूत्र:१६ ८१ वह धारणा स्मरणको- उत्पन्न करती है, और कार्यके पूर्वक्षणमें कारण रहना ही चाहिये. इसलिये उसे. संस्काररूप भी कह सकते हैं। तात्पर्य यह है कि जो स्मरणके समयतक रहता है। उसे किसी किसी जगह धारणासे पृथकू. गिनाया है और किसी र जगह धारणाके नामसे कहा है। धारणा तथा उस संस्कारमें कारण-कार्य सम्बन्ध है। - इसलिये जहाँ भेद, विवक्षा मुख्य होती है वहाँ भिन्न गिने जाते है और जहाँ अभेद-विवक्षा मुख्य होती है वहाँ भिन्न न गिनकर केवल धारणाको ही स्मरणका कारण चार-भेदोंकी विशेषताः इसप्रकार अवग्रह, ईहा, अवाय.और धारणा यह चार मतिज्ञानके भेद हैं; उसका स्वरूप उत्तरोत्तर, तरतम-अधिक अधिक शुद्ध होता है और उसे पूर्व २ ज्ञानका कार्य समझना चाहिये । एक विषयकी- उत्तरोत्तर विशेषता उसके द्वारा जानी जाती है, इसलिये उन चारों.ज्ञानोंको एक ही ज्ञानके विशेष प्रकार भी कह सकते है। मति स्मृति-आदिकी भाँति उसमें कालका असम्बन्ध नही है तथा बुद्धि मेधादिकी भाँति विषयका असम्बन्ध भी नही है ।।१८॥ न चक्षुरनिन्द्रियाभ्यामः ॥१६ अर्थ-व्यंजनावग्रह [ चक्षुः प्रनिन्द्रियाभ्याम् ] नेत्र और मनसे [न] नही होता। टीकामतिज्ञानके २८८ भेद सोलहवें सूत्र में कहे गये हैं, और व्यंजनावग्रह चार इन्द्रियोंके द्वारा होता है, इसलिये उसके बहु बहुविध- आदि वारह भेद होने पर अड़तालीस भेद हो जाते है. इसप्रकार मतिज्ञानके ३३६ प्रभेद होते हैं ॥ १६॥
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
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