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________________ ७ि अध्याय १ सूत्र १६ अवग्रहादिके विषयभूत पदार्थबहुबहुविधक्षिप्रानिःसृतानुक्तध्र वाणां सेतराणां ॥१६॥ ___ अर्थ-[बहु] बहु [बहुविध] बहुप्रकार [क्षिप्र] जल्दी [अनिःसृत] अनिःसृत [अनुक्त] अनुक्त [ध्र वाणां] ध्रुव [सेतराणाम्] उनसे उल्टे भेदोसे युक्त अर्थात् एक, एकविध, अक्षिप्र, निःसृत, उक्त, और अध्रुव, इसप्रकार बारह प्रकारके पदार्थोका अवग्रह ईहादिरूप ज्ञान होता है । टीका (१) बहु-एकही साथ बहुतसे पदार्थोका अथवा बहुतसे समूहोंका अवग्रहादि होना [ जैसे लोगोके झुन्डका अथवा गेहूँके ढेरका ] बहुतसे पदार्थोका ज्ञानगोचर होना। (२) एक-अल्प अथवा एक पदार्थका ज्ञान होना [ जैसे एक मनुष्यका अथवा पानीके प्यालेका ] थोड़े पदार्थोका ज्ञानगोचर होना।। (३) बहुविध-कई प्रकारके पदार्थोका अवग्रहादि ज्ञान होना ( जैसे कुत्तेके साथका मनुष्य अथवा गेहूँ चना चांवल इत्यादि अनेक प्रकारके पदार्थ ) युगपत् बहुत प्रकारके पदार्थोका ज्ञानगोचर होना। (४) एकविध-एक प्रकारके पदार्थोका ज्ञान होना ( जैसे एक प्रकारके गेहूँका ज्ञान ) एक प्रकारके पदार्थ ज्ञानगोचर होना । (५) क्षिप्र-शीघ्रतासे पदार्थका ज्ञान होना। (६) मक्षिप्र-किसी पदार्थको धीरे धीरे बहुत समयमें जानना अर्थात् चिरग्रहण । (७) अनिःसत-एक भागके ज्ञानसे सर्वभागका ज्ञान होना (जैसे पानीके बाहर निकली हुई सून्डको देखकर पानीमें डूबे हुए पूरे हाथीका ज्ञान होना ) एक भागके अव्यक्त रहने पर भी ज्ञानगोचर होना । (८) निःसृत-बाहर निकले हुए प्रगट पदार्थका ज्ञान होना, पूर्णव्यक्त पदार्थका ज्ञानगोचर होना ।
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
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