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________________ ६६ मोक्षशास्त्र धारणा- - अवायसे निर्णीत पदार्थको कालान्तर में न भूलना सो धारणा है। ( Rettienon ) आत्मा अवग्रह ईहा अवाय और धारणा जीवको अनादिकालसे अपने स्वरूपका भ्रम है, इसलिये पहिले आत्मज्ञानी पुरुषसे आत्मस्वरूपको सुनकर युक्तिके द्वारा यह निर्णय करना चाहिए कि आत्मा ज्ञानस्वभाव है, तत्पश्चात् - परपदार्थ की प्रसिद्धि के कारण - इन्द्रिय द्वारा तथा मन द्वारा प्रवर्तमान बुद्धिको मर्यादामे लाकर अर्थात् पर पदार्थोकी ओरसे अपना लक्ष्य खीचकर जब आत्मा स्वयं स्वसन्मुख लक्ष करता है तव, प्रथम सामान्य स्थूलतया आत्मासम्बन्धी ज्ञान हुआ, वह आत्माका अर्थावग्रह हुआ । तत्पश्चात् स्व-विचारके निर्णयकी ओर उन्मुख हुआ सो ईहा, और निर्णय हुआ सो अवाय, श्रर्थात् ईहासे ज्ञात आत्मामे यह वही है अन्य नही ऐसा दृढ़ ज्ञान अवाय है । आत्मासम्बन्धी कालान्तरमे सशय तथा विस्मरण न हो सो धारणा है । यहाँ तक तो परोक्षभूत मतिज्ञानमे धारणा तकका अन्तिमभेद हुआ । इसके बाद यह आत्मा अनन्त ज्ञानानन्द शांति स्वरूप है इसप्रकार मतिमेसे प्रलम्बित तार्किक ज्ञान श्रुतज्ञान है । भीतर स्वलक्ष्यमें मन - इन्द्रिय निमित्त नही है । जब जीव उससे अंशतः पृथक् होता है तब स्वतंत्र तत्त्वका ज्ञान करके उसमे स्थिर हो सकता है । अवग्रह या ईहा हो किन्तु यदि वह लक्ष चालू न रहे तो आत्माका निर्णय नही होता अर्थात् अवाय ज्ञान नही होता, इसलिये श्रवायकी अत्यंत श्रावश्यकता है । यह ज्ञान होते समय विकल्प, राग, मन, या पर वस्तुकी ओर लक्ष नही होता, किन्तु स्वसन्मुख लक्ष होता है । सम्यग्दृष्टि को अपना ( आत्माका ) ज्ञान होते समय इन चारों प्रकारका ज्ञान होता है । धारणा तो स्मृति है, जिस आत्माको सम्यग्ज्ञान अप्रतिहत ( - निर्वाध ) भावसे हुआ हो उसे आत्माका ज्ञान धारणारूप वना ही रहता है ॥ १५ ॥ 73
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
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