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________________ अध्याय १ सूत्र १० ५३ -- "सम्यग्ज्ञानं पुनः स्वार्थ व्यवसायात्मकं विदु" (तत्वार्थसार पूर्वार्ध गाथा १८ पृष्ठ १४) अर्थ-जिस ज्ञानमे स्व अपना स्वरूप, अर्थ-विषय, व्यवसाय% यथार्थ निश्चय, ये तीन बाते पूरी हों उसे सम्यग्ज्ञान कहते हैं अर्थात् जिस ज्ञानमें विषय प्रतिबोधके साथ साथ स्वस्वरूप प्रतिभासित हो और वह भी यथार्थ हो तो उस ज्ञानको सम्यग्ज्ञान कहते हैं। नवमें सूत्रका सिद्धान्त श्री जिनेन्द्र भगवान द्वारा प्ररूपित ज्ञानके समस्त भेदोंको जानकर परभावोंको छोड़कर और निजस्वरूपमें स्थिर होकर जीव जो चैतन्य चमत्कार मात्र है उसमे प्रवेश करता है वह तत्क्षण ही मोक्षको प्राप्त करता है। (श्री नियमसार गाथा १० की टीकाका श्लोक ) ॥९॥ कौनसे ज्ञान प्रमाण हैं ? तत्प्रमाणे ॥१०॥ अर्थ-[तत्] उपरोक्त पांचों प्रकारके ज्ञान ही [प्रमाणे] प्रमाण ( सच्चे ज्ञान ) है। टीका नवमे सूत्र में कहे हुये पांचों ज्ञान ही प्रमाण है, अन्य कोई ज्ञान प्रमाण नही है । प्रमाणके दो भेद हैं प्रत्यक्ष और परोक्ष। यह ध्यान रहे कि इन्द्रियाँ अथवा इन्द्रियों और पदार्थोके सम्बन्ध ( सन्निकर्ष ) ये कोई प्रमाण नही है अर्थात् न तो इन्द्रियोंसे ज्ञान होता है और न इन्द्रियों और पदार्थोके सम्बन्धसे ज्ञान होता है किन्तु उपरोक्त मति आदि ज्ञान स्व से होते हैं इसलिये ज्ञान प्रमाण हैं। प्रश्न-इन्द्रियाँ प्रमाण है क्योकि उनके द्वारा ज्ञान होता है ? उत्तर-इन्द्रियाँ प्रमाण नही हैं क्योकि इन्द्रियाँ जड़ हैं और ज्ञान तो चेतनका पर्याय है, वह जड़ नही है इसलिये आत्माके द्वारा ही ज्ञान होता -श्री जयधवला पुस्तक भाग १ पृष्ठ ५४-५५
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
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