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________________ मोक्षशास्त्र (६) पांचवें सूत्रका सिद्धान्त - भगवानके नामनिक्षेप और स्थापनानिक्षेप शुभभाव के निमित्त हैं, इसलिये व्यवहार है । द्रव्यनिक्षेप निश्चयपूर्वक व्यवहार होनेसे अपनी शुद्ध पर्याय थोड़े समय के पश्चात् प्रगट होगी यह सूचित करता है । भावनिक्षेप निश्चय पूर्वक अपनी शुद्ध पर्याय होनेसे धर्म है, ऐसा समझना चाहिये । निश्चय और व्यवहारनयका स्पष्टीकरण, इसके बादके सूत्रकी टीकामें किया गया है ॥५॥ २८ निश्चय सम्यग्दर्शनादि जाननेका उपाय प्रमाणनयैरधिगमः ॥ ६ ॥ अर्थ- सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रय और जीवादि तत्त्वोंका [ श्रधिगमः ] ज्ञान [प्रमाणनयैः ] प्रमाण और नयोंसे होता है । टीका (१) प्रमाण - सच्चे ज्ञानको - निर्दोषज्ञानको अर्थात् सम्यग्ज्ञानको प्रमारण कहते हैं । अनन्तगुणों या धर्मका समुदायरूप अपना तथा परवस्तुका स्वरूप प्रमाण द्वारा जाना जाता है । प्रमारण वस्तुके सर्वदेशको ( सर्व पहलुओंको ) ग्रहरण करता है, जानता है । नय -- प्रमाण द्वारा निश्चित हुई वस्तुके एकदेशको जो ज्ञान ग्रहण करता है उसे नय कहते हैं । जो प्रमाण द्वारा निश्चित हुये अनन्तधर्मात्मक वस्तुके एक एक अगका ज्ञान मुख्यतासे कराता है सो नय है । वस्तुओमें अनंत धर्म है, इसलिये उनके अवयव अनन्त तक हो सकते हैं, और इसलिये अवयवके ज्ञानरूप नय भी अनन्त तक हो सकते हैं । श्रुतप्रमाणके विकल्प, भेद या अंशको नय कहते हैं । श्रुतज्ञानमें ही नयरूप प्रश होता है । जो नय है वह प्रमाणसापेक्षरूप होता है । ( मति, अवधि, मन:पर्यय और केवल - ज्ञानमे नयके भेद नही होते ! ) (2) “Right belife is not identical with blind faith, It's authority is neither external nor autocratic. It is rea
SR No.010422
Book TitleMoksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRam Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages893
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size35 MB
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