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________________ मंगलमन्त्र णमोकार - एक अनुचिन्तन २४७ सन्वेसि साहूणं, नमो तिगुत्ताण सव्वलोए वि । सव-नियम-नाण - देसण - जुत्ताणं वंभयारीणं ॥५॥ समस्त लोकके -- ढाई द्वीपके त्रिगुप्तियोके धारी, तप, नियम, ज्ञान एवं दर्शन युक्त ब्रह्मचारी साधुमोको नमस्कार हो ॥५॥ एमो परमिट्ठीणं, पंचण्ह वि मावओ णमुक्कारो। सम्बरस कीरमाणो, पावस्स पणासणो होइ ॥६॥ पच परमेष्ठीको भावसहित किया गया नमस्कार समस्त पापोका नाश करनेवाला है ॥६॥ भुवणे वि मंगलाणं, मणुयासुर-अमर-सयर-महियाण । सम्वेसिमिमो पढमो, हवइ महामगल पढम ॥७॥ मनुष्य, देव, असुर और विद्याधरो-द्वारा पूजित तीनो लोकोमे यह णमोकार मन्त्र सभी मगलोमे सर्व प्रथम और उत्कृष्ट महामगल है ॥७॥ चत्तारि मंगल मे, हुतुरहंता तहेव सिद्धा य । साहु अ सत्रकालं, धम्मो य तिलोय-मगल्लो ॥८॥ अर्हन्त, सिद्ध, साघु और तीनो लोकोका मंगल करनेवाला धर्म ये चारों सदा मंगलरूप हो ॥८॥ चत्तारि चेव ससुरासुरस लोगस्स उत्तमा हुंति । भरहंत सिद्ध-साहू, धम्मो जिण-देसिय उयारो ॥९॥ अरिहन्त, सिद्ध, साधु तथा जिन प्रणीत उदार धर्म ये चारो ही तीनों लोकोमे उत्तम हैं।।९।। चत्तारि वि अरहंते, सिद्धे साहू तहेव धम्मं च । संलार-घोर - रक्खस - भएण सरणं पवज्जामि ॥१०॥ ससाररूपी घोर राक्षसके भयरो त्रस्त मैं, अहंन्त, मिद्ध, साधु और इन चारोको शरणमे जाता हूँ॥१०॥ अह-भरहमओ मगवमो, महइ महावीर-यङमाणस्स । पणय-सुरेसर-सेहर वियलिय-कुसुमच्चिय-पक्रमस्स ॥११॥
SR No.010421
Book TitleMangal Mantra Namokar Ek Anuchintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1967
Total Pages251
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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