SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 184
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १८८ मंगलमन्त्र णमोकार एक चन्तन लगे - "स्त्री विना पुत्र, दूध विना मक्खन, सूत बिना कपडा और मिट्टी बिना घडेका बनना जैसे असम्भव है, उसी प्रकार उपसर्ग विना सहे कर्मोका नष्ट होना असम्भव है । उपसर्गकी आगसे कर्मरूपी लकड़ी जलकर भस्म हो जाती है। इस पर्यायकी प्राप्ति, और इसमे भी दिगम्बर दीक्षाका मिलना वडे मौभाग्यकी बात है। जो व्यक्ति इस प्रकारके अवसरोंपर विचलित हो जाते हैं, वे कहीके नही रहते । जीवके परिणाम ही उन्नति-अवनतिके साधन है। परिणाम जैसे-जैसे विशुद्ध होते जाते हैं, वैसे-वैसे यह जीव आत्मकल्याणमे प्रवृत्त हो जाता है । परिणामोकी शुद्धिका साधन रामोकार मन्य है। इसी मन्त्र की आराधनासे परिणामोमे निर्मलता आ जाती है, आत्मा अपने ज्ञान, दर्शन, चैतन्यमय स्वरूपको समझ लेता है। अत णमोकार मन्त्रकी साधना ही सकटकालमे सहायक होती है। इसीके द्वारा मोहममताको जीता जा सकता है । जड़ और चेतनका भेद-भाव इसी महामन्त्रकी साधनासे प्राप्त होता है। मात्मरसका स्वाद भी पंचपरमेष्ठीके गुणचिन्तनसे प्राप्त होता है । इस प्रकार जिनपालित मुनिने द्वादश अनुप्रेक्षाओंका चिन्तन किया। महाव्रत और समितिके स्वरूपका विचार कर परिणामोको दृढ किया । अनन्तर सोचने लगे कि व्रतोंकी महिमा अचिन्त्य है। व्रत पालन करनेसे चाण्डाल भी देव हो गया, कौवेका मास छोडनेसे खदिरसागर इन्द्र पदवीको प्राप्त हुआ। णमोकार मन्त्रके प्रभावसे कितने ही भव्य जीवोंने कल्याण प्राप्त किया है । दृढसूर्य नामक चोर चोरी करते पकडा गया, दण्डस्वरूप शूलीपर चढाया गया, पर णमोकार मन्त्र के स्मरणसे देवपद प्राप्त हो गया । सोमशर्माकी स्त्रीने वरदत्त मुनिराजको अविभावपूर्वक आहार दान दिया था तथा अन्तिम समयमे णमोकारमन्त्रकी आराधना की थी, जिससे वह देवागना हुई। नमि और विनमिने भगवान आदिनाथकी माराधना की थी, जिससे घरगेन्द्रने आकर उनकी सेवा की। क्या पचपरमेष्ठीकी आराधना करना सामान्य बात है । द्रुमसेनने जिनेश्वर मार्गको समझकर णमोकार मन्त्रकी साधना की, जिससे पिण्डस्थ, पदस्थ और
SR No.010421
Book TitleMangal Mantra Namokar Ek Anuchintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1967
Total Pages251
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy