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________________ मगलमन्त्र णमोकार : एक अनुचिन्तन १८३ अन्न-पानीका त्याग गार पंचपरमेष्ठीके प्यानमे लीन हो गयी । णमोकार मन्त्रशा आश्रप ही उसके प्राणोका रक्षक या । गय येन्याने देखा कि यह इस तरह माननेवाली नहीं है, तो उसने सोचा कि इनके प्राण लेनेमे अच्छा है कि इसे गजाके हाथ बॅच दिया जाये। राजा इस अनुपम तुन्दरीको प्राप्त कर महुन प्रसन्न होगा और मुझे अपार धन देगा, जिससे मेरे जन्म-जन्मान्तरके दारिद्रय दूर हो जायेंगे। इस प्रकार विचार पर वह वेदया अनन्तमतीको राजा सिंहनतके पास ले गयी और दरवारमे जाफर बोली- "देव, इन रमणीरत्नको आपकी सेवामे अपंग करने आयी है। यह अनाघ्रात कलिका आपके भोग करने योग्य है । दासीने इसे पानेके लिए अपार धन खर्च किया है।" राजा उस दिव्य सुन्दरीको देखकर बहुर प्रसन्न हुमा और उस वेश्याको विपुल धनराशि देकर विदा किया । सन्ध्या होते ही राजा अनन्तमतीसे बोला -"हे कमलमुखी । तुम्हारे रूपका जादू मुझपर चल गया है, मेरे समस्त अगोपाग शिथिल हो रहे हैं, मेरा मन मेरे अधीन नहीं रहा है । मैं अपना सर्वस्व तुम्हारे घरणोंमे अर्पित करता हूँ। माजसे यह राज्य तुम्हारा है। हम मत्र तुम्हारे हैं, मत अव शीघ्र ही मन कामना पूर्ण करो। हाय ! इतना मौन्दर्य तो देवियोमे भी नही होगा।" ___ अनन्तमती णमोकारमन्त्रका स्मरण करती हुई ध्यानमे लीन थी। उसे राजाकी वातोंका बिलकुल पता नहीं था। उसके मुखपर अद्भुत तेज था । सतीत्वकी किरणें निकल रही थीं। वह एक मात्र णमोकार मन्त्रकी आराधनामे डूबी हुई थी। कहा गया है "सापि पचनमस्कार सस्मरन्तो सुखप्रदम्" अर्थात् वह मौन होकर एकाग्रमावसे णमोकार मन्त्रकी साधनामें इतनी लीन हो गयी कि उमने राजाकी बातें ही नहीं सुनी । अव अनन्तमतीसे उत्तर न पाकर राजाका क्रोध उभहा और उसने अनन्तमतीको पीटना आरम्भ किया। अनन्तमतीके ऊपर होनेवाले इस प्रकारके अत्याचारोको देखकर णमोकार मन्त्रके प्रभावसे उस नगरके शासन देव
SR No.010421
Book TitleMangal Mantra Namokar Ek Anuchintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1967
Total Pages251
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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