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________________ मंगलमन्त्र णमोकार एक अनुचिन्तन ११५ द्वारा हो आत्माकी सिद्धि की जाती है, क्योकि महामन्त्र और शुद्धात्मामें कोई अन्तर नही है। शुद्धात्माका वर्णन ही महामन्त्र में है और उसीके ध्यानसे निर्विकल्प समाधिकी प्राप्ति होती है । अत ध्यानका दृढ अभ्यास हो जानेपर साधकको यह अनुभव करना आवश्यक है कि मैं परमात्मा हूँ, सर्वज्ञ हूँ, मैं ही साध्य हूँ, मैं ही सिद्ध हूँ, सर्वज्ञाता और सर्वदर्शी भी मैं ही हूँ। मैं सत्, चित्, आनन्दरूप हूँ, अज हूँ, निरजन हूँ। इस प्रकार चिन्तन करता हुआ साधक जब समस्त संकल्प-विकल्पोसे विमुक्त हो अपने-आपमें विलीन हो जाता है, तब उसे निर्विकल ध्यान या परम समाधिकी प्राप्ति होती है। हेमचन्द्राचार्यने अपने योगशास्त्रमें योगागोके साथ णमोकार मन्त्रका सम्बन्ध दिखलाते हुए बतलाया है कि योगाभ्यास द्वारा शरीर और मनकी क्रियाओंका नियन्त्रण कर आत्माको ध्यानके मार्गमें ले जाना चाहिए। साधक सविकल्प समाधिको अवस्थामें इस अनादिसिद्ध मन्त्रके ध्यानसे अन्त आत्माको पवित्र करता है। पचपरमेष्ठोके तुल्य शुद्ध होकर निर्वाण मार्गका माश्रय लेता है । बताया गया है ध्यायतोऽनादिससिद्धान् वर्णानेतान् यथाविधिः । नष्टादिविषये ज्ञानं ध्यातुरुत्पद्यते क्षणात् ॥ तथा पुण्यतमं मन्त्रं जगस्त्रितयपावनम् । योगी पञ्चपरमेष्ठीनमस्कार विचिन्तयेत् ॥ विशुद्धया चिन्तयंस्तस्य शतमष्टोत्तरं मुनिः । भुजानोऽपि लभेतैव चतुर्थवपसः फलम् ॥ एनमेव महामन्त्रं समाराध्येह योगिन. । त्रिलोक्यापि महीयन्तेऽधिगता परमां श्रियम् ।। अर्थात्-अनादि सिद्ध णमोकार मन्त्रके वर्णों का ध्यान करनेसे साधकको नादि विपयका ज्ञान क्षण-भरमें हो जाता है । यह मन्त्र तीनो लोकोके जोवोको पवित्र करता है। इसके ध्यानसे-अन्तर्जल्परहित चिन्तनसे
SR No.010421
Book TitleMangal Mantra Namokar Ek Anuchintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1967
Total Pages251
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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