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________________ १४३ से बदला ले । उसका शीप काट कर ला ओर मेरे चरणो मे रख । यदि ऐसा न कर सके तो फिर अपना मुख मुझे कभी न दिखाना । " तू जन्म से ही वीरता के संस्कारो मे पले क्षत्रिय को होश आया । माता की ललकार ने सामयिक रूप से स्तव्ध हो गई उसकी आत्मा को झकझोर कर जगा दिया । एक सच्चे वीर की भाँति उसने अपने आँसू पोछ दिए और नंगी तलवार लेकर प्रतिज्ञा की वदला - " माता । प्रतिज्ञा करता हूँ ओर तुझे वचन देता हूँ कि अपने भाई के हत्यारे को आकाश और पाताल जहाँ भी वह होगा, खोज निकालूंगा ओर उसका शीप काट कर तेरे चरणो मे रख दूंगा । यदि मैं ऐसा न कर सका तो समझना कि तूने मुझे जन्म ही नही दिया, तेरी कोख से कोई जीवित मनुष्य नही, पत्थर ही जन्मा था । " माता के चेहरे से शोक के वादल दूर हो गए । जन्म और मृत्यु का खेल तो चलता ही रहता है । किन्तु शत्रु से भरपूर बदला लिए विना कैसा जीवन ? उसने अपने पुत्र को आशीर्वाद देते हुए कहा “यशस्वी हो । मृत्यु का भय कायरो को होता है । तू मेरा वीर पुत्र है । जा, काल के समान अपने शत्रु को चारो दिशाओ मे से खोजकर सिंह के समान झपटकर उसका रक्त पी जा । उसका शीप काट कर ला ।” माता को प्रणाम कर क्षत्रिय वीर चल पडा । उसके क्रोधित मुख को देखकर एक वार तो दिशाएँ भी यती-सी प्रतीत होती थी । लेकिन वह कायर हत्यारा तो जाने कहाँ जा छिपा था ? ग्राम-नगरपर्वत वन और रेगिस्तान, सभी स्थानो पर उसकी खोज उस क्षत्रिय ने की, किन्तु हत्यारा तो मानो अदृश्य होकर हवा मे जा मिला था । उसका कही भी कोई चिन्ह तक दिखाई नही दे रहा था । किन्तु क्षत्रिय हार मानने वाला नही था । थकने वाला नही था । उसे तो वैर का बदला लिए विना जीना ही नही था । अनन्तकाल तक भी यदि भटकना पडे तो वह भटकेगा, किन्तु शत्रु को तो खोजना ही है, बदला तो लेना ही है बारह वर्ष व्यतीत हो गए। आखिर एक दिन वह हत्यारा उस क्षत्रिय की दृष्टि से वच नही सका । उसे देखते ही क्षत्रिय की आँखो मे खून उतर
SR No.010420
Book TitleMahavira Yuga ki Pratinidhi Kathaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1975
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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