SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 53
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४८ महावीर वर्धमान तम प्राणियो के अधिकतम सुख' की भावना को लेकर जो कार्य किया जाय वह अहिसा है, बाकी हिसा है। छेदसूत्रो मे 'अल्पतर सयम को त्यागकर बहुतर सयम ग्रहण करने का आदेश देते हुए कहा गया है कि कभी कभी ऐसे विषम प्रसग उपस्थित होते है कि सयम-पालन की अपेक्षा आत्मरक्षा प्रधान हो जाती है, क्योकि जीवित रहने पर मुमुक्षु जनो के प्रायश्चित्त द्वारा आत्म-सशोधनकर अधिक सयम का पालन कर सकने की सभावना है। यहाँ यह ध्यान मे रखना आवश्यक है कि प्राचीन काल मे विषम परिस्थिति उपस्थित होने पर अपने संघ की रक्षा करने के लिये जैन साधुनो को उत्सर्ग मार्ग छोडकर अनेक बार अपवाद मार्ग का अवलम्बन लेना पडता था जिस की विस्तृत चर्चा छेद ग्रन्थो मे आती है। कालकाचार्य की कथा जैन ग्रन्थो मे बहुत प्रसिद्ध है--एक बार उन की साध्वी भगिनी को पकडकर उज्जयिनी के राजा गर्दभिल्ल ने अपने अत पर मे रखवा दिया। कालकाचार्य इसे कैसे सहन कर सकते थे, यह सघ का बडा भारी अपमान था | पहले तो उन्हो ने गर्दभिल्ल को बहुत समझायाबुझाया, परन्तु जब वह नही माना तो कालकाचार्य ईरान (पारस) पहुंचे और वहाँ से छियानवे शाहो को लाकर गर्दभिल्ल पर चढाई कर दी। तत्पश्चात् उन्हो ने शाहो को उज्जयिनी के तख्त पर बैठाकर अपनी भगिनी को पुन धर्म में दीक्षित किया। इस कथानक के जो चित्र उपलब्ध हुए है उन मे स्वय कालक आचार्य अपने साध के उपकरण लिये हुए अश्वारूढ होकर शत्रु पर बाण छोडते हुए दिखाये गये हैं। श्रमण-सघोद्धारक सम्वत्थ संजमं संजमानो अप्पाणमेव रक्खंतो। मुच्चति प्रतिवायाो पुणो विसोही ण ता विरती॥ तुमं जीवंतो एवं पच्छित्तेण विसोहेहिसि अण्णं च संजमं काहिसि (निशीथ चूणि पीठिका, पृ० १३८) “वही, १०, पृ० ५७१
SR No.010418
Book TitleMahavira Vardhaman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherVishvavani Karyalaya Ilahabad
Publication Year
Total Pages75
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy