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________________ महावीर वर्धमान मिलता है। इन भिक्षुप्रो ने निस्सन्देह महान् त्याग किया था। पाद और जघा जिन के सूख गये है, पेट कमर से लग गया है, हड्डी-पसली निकल आई है, कमर की हड्डियाँ रुद्राक्ष की माला की नाई एक एक करके गिनी जा सकती है, छाती गगा की तरगो के समान मालूम होती है, भुजाये सूखे हुए सर्पो के समान लटक गई है, सिर काँप रहा है, वदन मुरझाया हुआ है, आँखे अदर को गड गई है, बडी कठिनता से चला जाता है, बैठकर उठा नहीं जाता, बोलने के लिये ज़बान नहीं खुलती," जिन के रौद्ररूप को देखकर स्त्रियाँ चीख मारकर भाग जाती है । कितना रोमांचकारी दृश्य है ! बौद्ध भिक्षुमो के लिये कहा गया है कि प्रासन मारकर बैठे हुए भिक्षु के ऊपर पानी बरसकर यदि उस के घुटनो तक आ जाय तो भी वे अपने ध्यान से चलायमान नही होते,२ रूखा-सूखा भोजन खाकर वे सतुष्ट रहते है ; ८३ चार-पाँच कौर खाने के बाद यदि उन्हे कुछ न मिले तो वे पानी पीकर ही सतोष कर लेते है । एक बार कोई बौद्ध भिक्षु भिक्षा के लिये गाँव मे गया । वहाँ एक कोढी ने उसे कुछ चावल लाकर दिये; चावल के साथ कोढी की उँगली भी कटकर भिक्षापात्र में गिर पड़ी, परन्तु इस से भिक्षु के मन में तनिक भी ग्लानि उत्पन्न नही हुई। यह कुछ मामूली त्याग नही था ! लोक-कल्याण के लिये अपने आप को उत्सर्ग कर देने का इतना उच्च आदर्श बहुत दुर्लभ है । निस्सन्देह अपने तप और त्याग द्वारा आत्मोत्सर्ग कर देने की तीव्र लगन जब तक न हो तब तक हम किसी कार्य में सफल नहीं हो सकते। नई समाज की रचना करनेवाले तपस्वी महावीर ने अपने जीवन द्वारा हमे यही शिक्षा दी थी। "अनुत्तरोपपातिकदशा पृ० ६६ २ थेरगाथा ९८५ "वही, ९८२-३ "वही, ५८० वही, १०५४-६
SR No.010418
Book TitleMahavira Vardhaman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherVishvavani Karyalaya Ilahabad
Publication Year
Total Pages75
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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