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________________ साधुनों के कष्ट और उनका त्याग मे दूर-दूर परिभ्रमणकर श्रमणधर्म का प्रचार करते थे और समाज मे अहिंसा की भावना फैलाते थे । भोजन-पान की इन की व्यवस्था श्रावक और श्राविका करते थे। महावीर ने बुद्ध के समान अपने भिक्षुओं को मध्यममार्ग का उपदेश नही दिया था। महावीर बार-बार यही उपदेश देते थे कि हे आयुष्मान् श्रमणो! इन्द्रिय-निग्रह करो, सोते, उठते, बैठते सदा जागरूक रहो और एक क्षण भर भी प्रमाद न करो; न जाने कब कौन सा प्रलोभन आकर तुम्हे लक्ष्यच्युत कर दे, अतएव जैसे अपने आप को आपत्ति से बचाने के लिये कछुमा अपने अंग-प्रत्यंगों को अपनी खोपडी मे छिपा लेता है, उसी प्रकार अपने मन पर काबू रक्खो और अपनी चचल मनोवृत्तियों को इधर-उधर जाने से रोको । भिक्षु लोग महावतों का पालन करते थे, वे अपने लिये बनाया हुआ भोजन नही लेते थे, निमत्रित होकर भोजन नहीं करते थे, रात्रि-भोजन नही करते थे, यह सब इसलिये जिस से दूसरों को किचिन्मात्र भी क्लेग न पहुँचे । संन्यासियों के समान कन्दमूल फल का भक्षण त्यागकर भिक्षावृत्ति पर निर्वाह करने का अर्थ भी यही था कि जिस से श्रमण लोग जन-माधारण के अधिक सपर्क मे पा सके और जन-समाज का हित कर सके। यह ध्यान रखने की बात है आ सके और जन-समाज का हित कर सक कि जैन भिक्षु उग्न, भोग, राजन्य, क्षत्रिय, इक्ष्वाकु, हरिवंश नामक क्षत्रिय कुलों में तथा वैश्य, ग्वाले, नाई, बढ़ई, जुलाहे आदि के कुलों मे ही भिक्षा ग्रहण कर सकते थे, राजकुलों मे भिक्षा लेने की उन्हे सख्त मनाई थी, इस से जैन श्रमणों की जनसाधारण तक पहुँचने की अनुपम साध का परिचय प्राचारांग ६.२.१८१, ६.३.१८२ रात्रि में भिक्षा मांगने जाते समय बौद्ध भिक्षु अंधेरे में गिर पड़ते थे, स्त्रियाँ उन्हें देखकर डर जाती थीं, प्रादि कारणों से बुद्ध ने रात्रिभोजन की मनाई की थी (मज्झिमनिकाय, लकुटिकोपम सुत्त) " प्राचारांग २, १.२.२३४; १.३.२४४
SR No.010418
Book TitleMahavira Vardhaman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherVishvavani Karyalaya Ilahabad
Publication Year
Total Pages75
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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