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________________ साधुनों के कष्ट और उनका त्याग ४३ पड़ता था । कहीं भाड़, कहीं झाड़ियाँ, कहीं काँटे, कही पत्थर, कही गड्ढे और कहीं खाइयाँ इस प्रकार उस समय के मार्ग नाना संकटों से प्राकीर्ण थे । साधु लोग प्रायः काफ़लों के साथ यात्रा करते थे । " चोर डाकुओं के उपद्रव तो उस समय सर्वसाधारण थे। उस ज़माने में चोरों के गाँव के गाँव बसते थे जिन्हें चोरपल्लि कहा जाता था। इन चोरों का एक नेता होता था और सब चोर उस के नेतृत्व में रहते थे । ये चोर साधु-साध्वियों को बहुत कष्ट देते थे ।" राज्योपद्रव - जन्य साधुओं के लिये दूसरा महान् संकट था। राजा के मर जाने पर देश मे जब अराजकता फैल जाती थी तो साधुओं को महान् कष्ट होता था । उस समय आसपास देश के राजा नृपविहीन राज्य पर आक्रमण कर देते थे और दोनों सेनाओं में घोर युद्ध होता था । ऐसे समय प्रायः साधु लोग गुप्तचर समझ पकड़ लिये जाते थे। कभी विधर्मी राजा होने से जैन साधुओं को बहुत कष्ट सहना पड़ता था । जब राजा इन साधुओं को विनय आदि प्रदर्शन करने का आदेश देता तो वे बड़े संकट में पड जाते थे । कभी तो उन्हें बौद्ध, कापालिक आदि साधुओं का वेष बनाकर भागना पड़ता था, जैसे-तैसे अन्न पर निर्वाह करना पड़ता था, तथा पलाशवन और कमल आदि के तालाब में छिपकर अपनी प्राण-रक्षा करनी पडती थी । वसतिजन्य साधुनों को दूसरा कष्ट था । वसति —— उपाश्रय में सर्प, बिच्छु, मच्छर, चीटी, कुत्तों आदि IT उपद्रव था। उस के आसपास स्त्रियां अपना भ्रूण डालकर चली जाती थीं, चोर चोरी का माल रखकर भाग जाते थे, तथा कुछ लोग वहाँ श्रात्मघात कर लेते थे, इस से साधुओं को बहुत सतर्क रहना पड़ता था और ६८ बृहत्कल्प भाष्य, पृ० ८५६-६८० वही, पृ० ८४८-८५६ वही, पृ० ७७८- ७८७ १ निशीथ चूर्णि, पृ० ३६७ ६९ ७०
SR No.010418
Book TitleMahavira Vardhaman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherVishvavani Karyalaya Ilahabad
Publication Year
Total Pages75
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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