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________________ १६० सहप्पसाहा विरुहन्ति पत्ता, तन सि पुष्पं च फल रसो य ॥ दश० ६|२|१ वृक्ष रे मूळ सूं स्कन्ध उत्पन्न हुवै, स्कन्ध सूं शाखावा श्रर शाखावांसू प्रथाखावां निकळ । इणारे पछे फूळ, फळ अर रस पैदा हुवे । एवं धम्मस्स विण. मूलं परमो से मोक्खो । चाइजै । जेण कित्ति, सुय, सिग्धं, निस्सेसं चाभिगच्छई । दश० ह|२|२ इणीज भांत धरम रूपी वृक्ष रो मूळ विनय है अर उपरो प्रांखरी फळ मोक्ष । विनय सूं मिनख नै कीरति, प्रशंसा र श्रुतज्ञान आदि इष्ट तत्त्वां री प्राप्ति हुवै । वेयावच्चेणं तित्थयरनाम गोयं कम्मं निबंधेइ । उत्त० २६।४३ वैयावृत्त्य सेवा सू जीव तीर्थ कर नाम गोत्र जिसा उत्कृष्ट पुण्य करमां रो उपार्जन करें । गिलाणम्स गिलाए वेयावच्चकरण्याए अब्भुठ्ठे यव्वं भवइ । स्था० ८ रोगीं री सेवा करण खातर नितहमेस जागरूक रैवरणो तम्हा विषयमेसिज्जा, सीलं पडिलभेज्जनो उत्त० १७ विनय सू' साधक नै शील र सदाचार री प्राप्ति हुवे । इ वास्तै उगरी खोज करणी चाइजै । विरयमूले धम्मेपन्नते । ज्ञाता० ११५ धरम रो मूल विनय (सद्द्माचार ) है । अरसासियो न कुपिज्जा । गुरुजनां री सीख पर किरोध न करणो चाइजै | उत्त० ११६
SR No.010416
Book TitleMahavira ri Olkhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Baccharaj Nahta
PublisherAnupam Prakashan
Publication Year
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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