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________________ १२७ श्रावक हिंसादि प्रास्त्रवां रो द्रव्य, क्षेत्र, काळ री मर्यादा सूनितहमेस संकोच करै । इण र अभ्यास सूजीवन संयत अर नियमित वर्ण । ३. पोसवोपवास व्रत : इण व्रत में साधक हिंसादि पाप करमा रो एक दिन रात खातर त्याग करै। पौषध व्रत में वो खुद पाप कर्यां नवचै अर दूजा सू भी वो हिसादि रा काम नी कराने। ४. अतिथि संविभाग व्रत घर आयोड़ो अतिथि देव री भांत हुनै । साधु-साध्वी पर साधर्मीजनां रो भावनादर करणो हरेक गृहस्थ रो फरज हुने । समतावृत्ति वढावरण में तथा समाज में सौहार्द भाव री थरपणा में ओ व्रत घणो उपयोगी है। [६] अहिंसा अहिंसा सवद रो अर्थ है-हिंसा नी करणी, किणी जीव नै नों मारणो । अहिंसा रो मरम भलीभांत समझरण खातर हिंसा रो सरूप समझरणो जरूरी है। जैन परिभाषा मुजब हिंसा सवद रो अरथ हुवै-प्रमाद युक्त मन, वाणी पर सरीर सूदूजा रै अथवा आपण प्राणां रो नास करणो । प्राण दस हुवै-पांच इन्द्रियां, मन, वाणी, सरीर, सांस पर आयु । इण दसूप्राणां मांयसूकिणी एक ने भी प्रमाद रै वसीभूत हुयर नुकसाण पोहचाणों, हिंसा है हिंसा रो मूल कारण प्रमाद । प्रमाद पांच भांत रा हुवै(१) इन्द्रियाँ री विषयासक्ति (२) कषाय-क्रोध, मान, माया, लोभ आदि मनौवेग
SR No.010416
Book TitleMahavira ri Olkhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Baccharaj Nahta
PublisherAnupam Prakashan
Publication Year
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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