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________________ ११३ पर परमातमा । १ बहिरातमा: बहिरातमा वा अवस्था जिणमें आतमा जागृत नींहुवे, वीनै प्रातमजान नी हुवै । जीव, सरीर पर इन्द्रियाँ नैइज वा प्रातमा ममझे। २. अन्तरातमा: अन्तरातमा वा अवस्था है जद जीव नै ज्ञानी पुरुसां रै सम्पर्क सूत्रातमज्ञान हुवे। वो नै सरीर सू आपण अळग अस्तित्व रो भान हवे । वाया वात समझ जावे के जिण भांत म्यान पर तलवार एक नी है, उगीज भांत पातमा अर सरीर पण एक कोनी । अन्तमुंख नातमा सरीर नै पर पदारथ समझ' र उण पर मुग्ध नी हुवे। उरण नै संसार घर उगरे पदार्थी सू हर्ष अर विषाद नी हुदै । उपने इष्ट-सयोग में सुख अर इप्ट-वियोग में दुख नी हुवै । समभाव री जोत उणरै मानस ने जगमगावा लागै। राग-द्वेष रो भाव नष्ट हृय जावै । दुनियां री से वस्तुग्रां पर घटनावां ने वा मध्यस्थ भाव सूदेखें। ३. परमातमा: परमातमा वा अवस्था है जद प्रातमा नै अतीन्द्रिय ज्ञान हुय जाने। वा अनन्त सुख, अनन्त ज्ञान पर अनन्त सक्ति रो स्रोत वण जागे । उणमे किरणी भांत रो विकार नी हुने । बा परमानन्दमयी पर विशुद्ध चैतन्य स्वरूप पाळी हुय जाने। श्रा परमातम दसाइज परमब्रह्म है, जिनराज है, परम-तत्त्व हैं, परमगुरु, परमज्योति, परमतप, अर परम ध्यान है। जै इग सरूप नै जाग लियो बी से कुछ जाण लियो अर जै इण सरूप नै नीं जाणियो वां से कुछ जाण' र भी कांई नी जाणियो। [३] कर्म विश्व रै विशाल रंगमंच पर निजर डालण तूं मालूम हुवै के पण में चारकांनी विविधता पर विषमता है । चार गतियां पर
SR No.010416
Book TitleMahavira ri Olkhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Baccharaj Nahta
PublisherAnupam Prakashan
Publication Year
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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