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________________ ॥४ ॥ म. वी. हालतोंमें निर्मल आचरगोंसे परम धर्म ही सेवन करना चाहिये । देखो जिस व्रतके ll पु. भा. 2 पालनेसे सर्व जीव ऐसी संपदाको पाते हैं वह चारित्र यहां नहीं पल सकता इसलिये B/ अव मैं क्या करूं ? अथवा एक दर्शनशुद्धि ही मुझे धर्मादिकी सिद्धके लिये ठीक है I और श्रीजिननाथकी भक्ति तथा उनकी मूर्तिकी महान पूजा ही करना ठीक है। ऐसा कहकर स्नानकी बावड़ीमें स्नान करके धर्मके उपार्जन करनेको वह इंद्र देवियों सहित अकृत्रिम जिनचैत्यालयोंमें जाता हुआ। वहां पर अत्यंत भक्तिसे नम। स्कार पूर्वक अर्हत विवोंकी महान पूजा करता हुआ। की इच्छा मात्रसे प्राप्त हुए दिव्य जलादि आठ द्रव्योंसे और गाना बजाना स्तुति आदिसे चैत्य वृक्षोंके नीचे विराजमान जिन प्रतिमाओंकी पूजा करके वह देवोंका स्वामी भक्तिपूर्वक मनुष्यलोक मध्यलोकवर्ती जिनप्रतिमाओंको पूजकर तीर्थकर गणधरादि । मुनीश्वरोको नमस्कार कर उनसे तत्वोंका व्याख्यान सुन महान् धर्मका उपार्जन करता हुआ। वहाँसे अपने घर आकर अपने धर्मके फलसे प्राप्त हुई अनेक प्रकारकी संपदाको स्वीकार करता हुआ। तीन हाथ ऊंचा, पसीना धातु मलसे रहित नेत्रोंकी टिमकार रहित ऐसे दिव्य शरीरको वह धारण करता हुआ । नरककी छही पृथ्वीतकके मूर्तीक पदार्थोंको ४१॥ अपने अवधिज्ञानसे जानता हुआ और वहींतक विक्रिया ऋद्धिका प्रभाव फैलाता हुआ।
SR No.010415
Book TitleMahavira Purana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddharak Karyalaya
Publication Year1917
Total Pages323
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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