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________________ म. वी. |३५|| किया जावे तो उस वस्तुसे बहुत ही घृणा उत्पन्न होती है कोई भोग की वस्तु शुभ नहीं है। इत्यादि विचार करनेसे बहुत वैराग्यको प्राप्त हुआ वह राजा उसी योगीको दीक्षागुरु बनाकर दोनों तरह के परिग्रहोंको छोड़ मनवचन कायकी परमशुद्धिसे मोक्षके लिये अनंत जन्मकी संतानका नाश करनेवाले मुनित्रतको ग्रहण करता हुआ । गुरूप| देशरूपी जिहाज़को पाकर बुद्धिमान वह राजा शीघ्रही ग्यारह अंगशास्त्ररूपी समुद्रको | सावधानता से पार होता हुआ । अपनी शक्तिको प्रगट करके कर्मों के नाश करनेवाले बारह प्रकारके तपको आचरता हुआ । पक्ष महीना आदि छह महीनातक वह मुनि सव इंद्रियोंके सोखनेवाले अनशन तपको करता हुआ, जो कि कर्मरूपी पर्वतको वज्र के समान है । एक ग्रास ( गस्से) को आदि लेकर अनेक प्रकारका अवमौदर्य तप नींद के कम होनेके लिये धारण करता हुआ । किसी समय वह जितेन्द्री मुनि तृष्णाके नाश करनेवाले वृत्तिपरिसंख्यान तपको लाभांतराय कर्मके नाशके लिये पालता हुआ । वह जितेंद्री मुनि रसपरित्याग तपको अतींद्रिय सुखके लिये धारण करता हुआ । ध्यानाध्ययन करनेवाला वह मुनि स्त्री आदि रहित पर्वतकी गुफा वनादिकमें विविक्त शय्यासन तप पालता हुआ । वह मुनि वर्षाऋतु में बड़ी भारी हवा और वर्षा से व्याप्त वृक्षके नीचे धीरजरूपी कंवलको ओढे पु. भा. अ. ६ ||३५||
SR No.010415
Book TitleMahavira Purana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddharak Karyalaya
Publication Year1917
Total Pages323
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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