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________________ म. वी. ॥१७॥ 26242 अधिक काट लेनेसे भी अधिक वेदनावाली है। ऐसी पृथ्वी के स्पर्शसे दुखी हुआ १२० कोश ऊपर उछलकर फिर पत्थर और कांटों से भरी हुई पृथिवीपर गिरा । तदनंतर दीन हुआ वह मारने को आये हुए नारकियोंको देख तथा सवतरहके दुःखों को देनेवाले उस | क्षेत्रको देखकर ऐसा विचारता हुआ । sa৬০G: पु. भा. अ. ३ देखो अचंभे की बात है कि ऐसी खराव पृथ्वी यह कौनसी है कि जिसमें सभी दुःख भरे हुए हैं और ये दुष्ट नारकी कौन हैं जो कि दुख देनेमें बहुत चतुर हैं। मैं | कौन हूं और यहां अकेला कैसे आया । कौंनसा खोटा कर्म इस भयंकर स्थानमें मुझे ले |आया है इत्यादि विचार कर रहा था इतनेमें उसको विभंगा ( खोटी ) अवधि हुई। | उससे अपनेको नरकमें पड़ा हुआ जान ऐसा विलाप करने लगा । अहो मैंने पहले जन्ममें अनेक जीवोंको मारा और झूठ तथा कठोर वचन दूसरोंको | कहे । मुझ पापीने लोभके वश होकर पराई लक्ष्मी तथा स्त्री वगैरः वस्तुएँ जबरदस्ती हरके सेवन कीं ( भोगीं ) और धन बहुत इकट्ठा किया । मैंने पांच इंद्रियों के वशमें होकर नहीं खाने योग्य पदार्थ खाये, नहीं सेवने योग्य पदार्थ सेवन किये और नहीं पीने योग्य चीज़ों को पिया । इस बात बहुत कहने से कुछ लाभ नहीं मुझ दुर्बुद्धिने ॥१७॥ पहले जन्म में बड़े २ सब पाप कर डाले जो कि मेरा नाश करनेवाले हैं ।
SR No.010415
Book TitleMahavira Purana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddharak Karyalaya
Publication Year1917
Total Pages323
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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