SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 37
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विश्वनंदी मुनि भी अनेक देश ग्राम बनादिकोंमें भ्रमता हुआ पक्ष महीने आदिके | अनशनादि तपसे जिसका शरीरसंबंधी बल अत्यंत क्षीण होगया है तथा ओठ मुंह आदि अंग जिसके सुख गये हैं ऐसी अवस्थावाला ईर्यापथदृष्टि से ( जमीन शोधकर ) मथुरा नगरीमें प्रवेश करता हुआ । इसी अवसर पर वह विशाखनंद भी खोटे व्यसनोंके सेवनसे राज्यसे भ्रष्ट हुआ किसीका दूत बनकर उसी नगरीमें आया । और वेश्याकी हवेली के ऊपर बैठा हुआ ही था कि नीचे जाते हुए उन विश्वनंदी मुनिको गौके बछड़े के सींगके धक्केसे गिरा देख अपना नाश करनेवाले खोटे वचन हंसकर कहता हुआ । हे मुनि ! आज वह तेरा पहला पराक्रम (बल) कहां भागगया कि जिस बलसे तूने पत्थरका स्तंभ तोड़ा था सो मुझको कह । क्योंकि अब तू दुर्बल शक्तिहीन मैले शरीरवाला शीतादि वाधाओंसे मुर्दे की तरह जले हुए शरीरवाला दीखता है । इस प्रकार उस विशाखनंदके वचन सुनकर जिसको क्रोध मान उदय होगया है ऐसा वह मुनि क्रोध से लालनेत्र करके अंतरंग में ही कहने लगा कि अरे दुष्ट मेरे तपके प्रभावसे निश्चयकर इस हँसीका कटुक फल ऐसा भारी पावेगा जोकि तेरे मूलका नाश हो जाइगा । इस तरह उसके नाश करनेरूप, वुद्धिमानोंकर निंदा किया गया ऐसा निदानबंध करके समाधिमरण द्वारा प्राणोंको त्यागता हुआ । उस तपके फलसे वह 220820526900CCC
SR No.010415
Book TitleMahavira Purana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddharak Karyalaya
Publication Year1917
Total Pages323
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy