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________________ म. वी. ॥११॥ तीसरा अधिकार ॥ ३ ॥ यानंतगुणा व्याप्य त्रैलोक्यं हि निरर्गलाः । चरंति हृदि देवेशां गुणायै स स्तुतोऽस्तु मे ॥ १ ॥ भावार्थ - जिसके अनंतगुण बिना रुकावटके तीनों लोकोंमें विचर रहे हैं और इंद्रादिक भी अपने चित्तमें उनका चिंतवन करते हैं ऐसे श्रीवीतराग प्रभुकी स्तुतिं गुणोंकी प्राप्ति के लिये मैं भी करता हूं । मगधदेशके राजगृह नगर में एक शांडिल नामका ब्राह्मण था उसकी पारासिरी नामकी प्राणप्यारी स्त्री थी, उनके वह 'मरीचि' का जीव अनेक योनियोंमें भटकता हुआ 'स्थावर' नामका पुत्र हुआ और वह वेद वेदांग मिथ्या शास्त्रोंका पारगामी होता हुआ । उस जगह भी पहले अपने मिथ्यात्व के संस्कारसे परिव्राजक ( त्रिदंडी ) की दीक्षा ली और शरीरको क्लेश देने मात्र तप करता हुआ । उस कुतपके फलसे मरकर पांचवें माहेंद्र स्वर्ग में सातसागरकी आयु तथा थोड़ी संपदाको भोगनेवाला देव हुआ । उसी राजगृह नगर में विश्वभूति राजा और उसकी जैनी नामकी प्यारी स्त्री थी, उनके वह देव स्वर्गसे आकर 'विश्वनंदी' नामका पुत्र हुआ और वह बड़ा पुरुषार्थ पु. भा. अ. ३. ॥११॥
SR No.010415
Book TitleMahavira Purana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddharak Karyalaya
Publication Year1917
Total Pages323
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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