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________________ पापकर्म के उदयसे एकेंद्रीजन्मको धारण किये हुए हैं देव कभी नहीं हैं । किंतु (लेकिन) तीर्थकर ही देव हो सकते हैं, क्योंकि वे ही भव्योंको भोग और मोक्षके देनेवाले हैं। और तीन जगत्के जीवोंसे नमस्कार किये गये हैं । इनके सिवाय दूसरे मिथ्याती देव नहीं हो सकते । इत्यादि ज्ञानके वचनोंसे वह जैनी उस विमकी देवमूढता दूर करता हुआ । उसके बाद चलते हुए वे दोनों क्रमसे गंगानदी के किनारे आ पहुँचे । वह मिथ्याती विप्र उससे बोला कि ' यह तीर्थंका जल निश्चयसे पवित्र और शुद्धि करने वा ला है' । ऐसा कहकर वह गंगाके जलसे स्नानकर उसको नमस्कार करता हुआ । ऐसा देख वह उत्तम श्रावक इसको खानेके लिये अपने झूठे अन्नको और गंगाजलको देता हुआ । उसे देख वह ब्राह्मण बोला कि मैं दूसरेकी झूठन कैसे खा सकता हूं। यह सुनकर सच्चे मार्गकी प्राप्तिके लिये वह जैन उस मिथ्यातीको ऐसा बोला कि हे मित्र मेरा झूठा किया हुआ अन्न जो खराव है तो गधे वगैरह जीवोंसे झूठा किया गया गंगाजल क्यों नहीं खराव कहाजा सकता, वह कैसे शुद्ध है और शुद्धिको दे सकता है । इसलिये जल कभी तीर्थ नहीं हो सकता और न मनुष्योंको स्नान करनेसे शु द्धि होसकती है लेकिन जीवोंकी हिंसासे केवल पापका ही कारण हो सकता है । क्योंकि
SR No.010415
Book TitleMahavira Purana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddharak Karyalaya
Publication Year1917
Total Pages323
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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