SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 284
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अ.१८ वहां पर आर्यलोग पुरुष स्त्रीरूप जुगलिया अर्थात् एक साथ जोड़ा जन्म लेकर पु.भा. भोगोंको हमेशा भोगकर वादमें उत्तम परिणामके प्रसादसे सभी जोड़े स्वर्गमें जन्म लेते। हैं। इसी कालकी वह भूमि सब सुखोके देनेवाली उत्तम भोगभूमि कहलाती है। Moवहाँ पर क्रूरस्वभावी पंचेंद्री और दो इंद्रियादि विकलत्रय नहीं होते । उसके बाद सुखमा नामका दूसरा काल वर्तता है वह तीन कोडाकोड़ि सागरका है । उस कालमें मध्यम : भोगभूमिकी रचना होती है। उस कालके आरंभमें मनुष्य दो पल्यकी आयुवाले, दो कोस ऊँचे शरीरवाले और पूर्ण चंद्रमाके समान वर्णवाले होते हैं। वे दो दिन के बाद वहे ! लडेके फलके समान तृप्ति करनेवाला दिव्य आहार करते हैं। वे सब भोगभूमियाओंके । समान सामग्रीवाले होते हैं। उसके बाद तीसरा सुखमादुखमा काल प्रवर्तता है वह दो कोडाकोड़ि सागरका ।। है उसमें जघन्य भोगभूमिकी रचना है । उसके आरंभमें मनुष्योंकी आयु एक पल्यकी, शरीरकी उँचाई एक कोसकी और शरीरकी रंगत प्रियंगु क्षके रंगके समान होती है। उनका तृप्ति करनेवाला आहार एक दिनके वाद आंवलेके बराबर होता है और ISi/कल्पक्षोंसे भोगादिकी सामग्री मिलती है। ॥१३७॥ उसके बाद चौथा दुखमासुखमा काल है उस समय कर्मभूमिकी प्रवृत्ति होती है । समझन्छन्
SR No.010415
Book TitleMahavira Purana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddharak Karyalaya
Publication Year1917
Total Pages323
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy