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________________ म.वी. 116 11 समुद्र पड़ते हैं । दूसरी बात यह है कि गृहस्थपने में जो पाप किया था वह जिनलिंग ( मुनिपने) में छूट जाता है यदि मुनिवेशसे पापकर्म किया जावे तो वज्रलेप हो जावे फिर उसका छूटना बहुत कठिन है । इस लिये इस जगत्पूज्य जिनभेषको छोड़कर दूसरा वेष धारण करो । जो ऐसा नहीं करोगे तो मैं तुमको बहुत दंड ( सजा ) दूंगा । ऐसे उस देवके वचनों को सुनके वे डरे और देवपूज्य भेषको छोड़ जावगैरहका रखना इत्यादि अनेक तरहके वेपको धारण करते हुए । वह भरतपुत्र मरीचि भी तीव्र मिथ्यात्व - कर्मके उदयसे पहले मुनिवेपको छोड़ संन्यासियोंका त्रेप अपना बनाता हुआ । दीर्घ संसारी उसकी शक्ति स्वयं परित्राजकमतके शास्त्रोंकी रचना करनेमें शीघ्र होती हुई, आश्चर्य है कि जिसकी जैसी होनहार है वैसी होकर ही रहती है अन्यथा नहीं हो सकती । वे तीन जगत्के स्वामी पृथ्वीपर विहार करते हुए। उसी वनमें सिंहके समान अकेले एक हजार वर्षतक मौन साधकर रहे । फिर वे तीर्थकरराजा ध्यानरूपी तलवार से जगत्को हित करने वाले केवल ज्ञानरूपी राज्यको स्वीकार करते हुए अर्थात् उन्हें केवलज्ञान हो गया । उसी समय यक्षाधिपतिने वारह कोठोंवाले सभामंडपकी रचनाकी जिसमें सव जगत् के जीव आजायें। इंद्रादिक भी उत्कृष्ट विभूतिके साथ सव कुटुंब तथा देवांगनाओं के साथ आकर उस विथुकी जलादि अष्ट द्रव्यसे भक्तिपूर्वक पूजा करते हुए । पु. भा. अ. २ ॥ ८ ॥
SR No.010415
Book TitleMahavira Purana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddharak Karyalaya
Publication Year1917
Total Pages323
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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