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________________ @ RAS जो मूढ जड़ चेतनस्वरूप शरीर और जीवको संबंध होनेसे एक मानता है वही मूर्ख ज्ञानसे बहुत दूर है यानी कुछ भी नहीं जानता । बहिरात्मा जीव अपनी कुबुद्धिसे पापको पुण्य जानकर उसके लिये क्लेश उठाता है इसीसे संसाररूपी वनमें भटकता ! रहता है । जो तप श्रुत और व्रतों सहित होने पर भी अपना और परस्वरूपका विचार ही नहीं कर सकता वह आत्मज्ञानसे रहित है । ऐसा समझकर बुद्धिमानोंको खोटे मार्गमें ! जानेवाला वहिरात्मा सव तरहसे त्यागना चाहिये, उसकी संगति ( सौवत) स्वममें भी । नहीं करनी चाहिए। उस वहिरात्मासे जो उलटा है अर्थात् विवेकी है जिन सूत्रका जाननेवाला है| और तत्व अतत्वमें शुभ अशुभमें देव कुदेवमें सत्य असत्यमतमें धर्म अधर्ममें मिथ्यामार्ग IAS/मोक्षमार्गमें जो भेदको अच्छी तरह जानता है वही अंतरात्मा जिनेंद्रने कहा है। जो मोक्षका इच्छक सव अनथोंके करनेवाले विपय जन्य सुखको हालाहलविषके समान समझता है वह अंतरात्मा है । जो जीव अपनेको कर्मोंसे कर्मकार्योंसे और मोह इंद्रिय देप राग शरीरादिसे जुदा समझता है वही महान् ज्ञानी अपने आत्मामें लीन कहा जाता है। | जो अपनेको निष्कल सिद्धसमान योगिगम्य अनुपम ध्यान (चितवन ) करता है ||६|| तथा अपने आत्मद्रव्य और अन्य देह वगैरमें बहुतही भेद समझता है वह महान् ज्ञानी । न्जन्छ
SR No.010415
Book TitleMahavira Purana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddharak Karyalaya
Publication Year1917
Total Pages323
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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