SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 231
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्वव्यापी जगतके नाथ भव्योंकर माने गये हौ । हे स्वामिन आपका अनंत केवलदर्शन जगतसे नमस्कार किया गया लोक अलोकको देखकर केवलज्ञानकी तरह स्थिर हो गया है । हे नाथ तुमारा अनंतवीर्य सव पदार्थों के दर्शन होनेपर भी सब दोपोंसे रहित अनुपम शोभायमान हो रहा है । हे देव तुमारा अनंत उत्तम सुख वाधारहित अनुपम अतींद्रिय है और सब संसारियोंके अनुभवमें कभी नहीं आसकता। हे महावीर ये तेरे दिव्य अनंत चतुष्टय दूसरोंके न होनेसे असाधारण हुए तुझमें । ही विराज रहे हैं । इच्छारहित तुमारे ये आठ प्रातिहार्य संपदायें सब दुनियाँके पदार्थोंसे KA अतिशयवाली अनुपम शोभाको पारहीं हैं । दूसरे भी आपके अनगिनती गुण तीन । लोकमें मुख्य अनुपम हैं वे हम सरीखे अल्पज्ञानियोंसे कैसे प्रशंसा किये जा सकते हैं। हे देव जैसे वादलोंकी धारा आकाशके तारे समुद्रकी लहरें अनंत संसारी जीव इन|| सबकी गिनती नहीं मालूम होती उसीतरह आपके गुणोंकी भी संख्या नहीं होसकती। ऐसा समझकर हे देव तुमारी स्तुति करनेमें मैंने अधिक परिश्रम नहीं किया|| और गणधरोंके भी अगम्य ऐसे तुमारे गुणोंको वर्णन करनेमें भी मैंने अधिक प्रयास नहीं किया । इसलिये हे देव आपको नमस्कार है । दिव्यमूर्ति आपको नमस्कार है।
SR No.010415
Book TitleMahavira Purana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddharak Karyalaya
Publication Year1917
Total Pages323
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy