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________________ Mob.. हा उत्तमपात्र श्री जिनदेवको देख कठिनाईसे पाये हुए खजानेकी तरहं मनमें अत्यंत आ-|| नंद पाता हुआ।फिर वह धर्मबुद्धिराजा तीन प्रदक्षिणा दे पृथ्वीपर पांच अंग रखके प्रणाम है। कर तिष्ठ तिष्ठ ( विराजो विराजो) ऐसा खुशीके साथ कहता हुआ। फिर उन प्रभुको । Nऊंचे पवित्र स्थानपर बैठाकर उनके चरण कमलोंको शुद्ध जलसे धोकर उस प्रक्षालित जलको सव अंगमें लगाकर वह राजा जलादि आठ तरहकी प्रासुक द्रव्यसे पूजा करता हुआ। फिर ऐसा विचार कर कि 'आज मैं पुण्यात्मा हुआ । सुपात्रके लाभसे अब मेरा Mगृहस्थपना सफल हुआ' वह राजा मनकी शुद्धि करता हुआ। हे! देव हे नाथ! आज मैं धन्य हूं आपने अपने :आगमनसे यह घर आतपवित्र कर हादिया ऐसा कहकर वचन शुद्धि करता हुआ । आज मेरा शरीर पवित्र हुआ और पात्रदानसे ये श्रेष्ठ हाथ पवित्र हुए-ऐसा मानकर वह राजा काय शुद्धि करता हुआ। कृत आदि दोपोंसे रहित मासुक अन्नसे होनेवाली निर्मल एषणा (आहार ) शुद्धि करता हुआ । इस प्रकार वह राजा पुण्योपार्जनके कारण नव प्रकार की विधिसे उसी समय महान पुण्यका उपार्जन करता हुआ। इस समय बहुत दुर्लभ यह पात्रदान मेरे भाग्यसे संपूर्णपनेको प्राप्त होवे ऐसा विचारकर दानमें परम श्रद्धा करता हुआ वह राजा अपनी शक्ति प्रगट करके पात्र कन्सन्जालन्छन्लन्डन्न्न्न्न 2000जन्सललललल
SR No.010415
Book TitleMahavira Purana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddharak Karyalaya
Publication Year1917
Total Pages323
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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