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________________ लन्ड तेरा पुत्र दीन ( भिखारी) की तरह अशुभं घरमें कैसे प्रीति कर सकता है। और फिर भी यह तीन ज्ञानरूपी नेत्रवाला है इसलिये सब संसारको जानलिया है। इस कारण विरक्त चित्त हुआ इस मोहरूपी अंध कुएमें किस कारण गिरे (प.)। ऐसा जानकर हे महान् चतुर माता ! पापोंकी खानि ऐसे शोकको छोड़ो और तीन जगतको अनित्य जानकर घरमें जाकर धर्मका सेवन करो। क्योंकि इष्टके वियोग से मूर्ख जन ही शोक करते हैं और बुद्धिमान् जन संसारसे भयभीत होकर सब अनिहाटशका नाशक ऐसे धर्मका सेवन करते हैं। इत्यादि उन देवोंके वचन सुनकर वह जिनमाता सचेत हुई विवेकरूपी किरणोंसे चित्तके शोकरूपी अंधकार को शीघ्र हटाकर और अपने हृदयमें धर्मको धारणकर संसारसे भयभीत हुई अपने कुटुंबियों और नोकरोंके है। साथ अपने महलको गई। | वे जिनेन्द्र महावीर प्रभु भी कुछ निकट ही देवोंके साथ मनुष्योंके मंगल गानेके | आरंभमें ही संयम धारण करनेके लिये खका नामके बड़े वनमें आये । वह वन अच्छी छायावाला फल सहित रमणीक ध्यान अध्ययनको वृद्धि देनावाला था। वहां एक चंद्रका तमयी पवित्र शिलापर वे महावीर स्वामी अपनी पालकीसे उतरकर बैठ गये। कैसी है। KI वह शिला । जो शिला देवोंने पहले आकर वनादी है गोल है वृक्षोंकी छायासे ठंडी है। सन्सलन्सन्कन्छन् न्न्न्लन्छन्
SR No.010415
Book TitleMahavira Purana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddharak Karyalaya
Publication Year1917
Total Pages323
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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