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________________ म. वी. ॥५८॥ जलधारा डालता हुआ | उससमय बहुत से देव ' जय हो चिरकाल जीवौ हमारी रक्षा | करो' ऐसा मधुर शब्दोंसे वडाभारी कोलाहल मचाते हुए । इसीतरह दूसरे देवेन्द्र भी उन महान् कलशोंसे सौधर्मेन्द्र के साथ साथ गंगाके प्रवाहके समान मोटी धारा प्रभुके ऊपर डालते हुए । उससमय प्रभुके ऊपर धारा ऐसी पड़ने लगी कि यदि दूसरे पहाड़ोंपर पड़े तो उनके सैकड़ों टुकड़े हो जावें परंतु अपरिमित (अतुल ) बलके कारण उन प्रभुको फूलोंके समान मालूम होने लगी । जलके छींटे आकाशमें बहुत ऊंचे उछलते हुए ऐसे मालूम होने लगे मानों जिनेंद्रके शरीरके स्पर्श होने से ही पापोंसे छूटकर ऊर्ध्वगतिको जा रहे हैं । कितनेही स्नानजलके कण तिरछे फैलते हुए ऐसे मालूम होने लगे मानों | दिशारूपी स्त्रियोंके मुखके सजानेके लिये मोती ही हों । स्नान के जलका ऊंचा प्रवाह उस पर्वतके वनमें ऐसा बढ़ता हुआ मानों पर्वतराजको ऊपर तैरा रहा है । 1 उन भगवान्‌के स्नान किये जलसे डूबे हुए वृक्षोंवाला वह वन ऐसा दीखने लगी मानों दूसरा क्षीर समुद्र ही हो । इत्यादि अनेक प्रकारके दिव्य महान उत्सवोंसे, दीप धूपादि पूजासे गाना नाचना बाजे आदिसे तथा अन्य भी उत्कृष्ट सामग्री के साथ अपनी आत्मशुद्धिके लिये वे इंद्र प्रभुको शुद्धस्नान कराते हुए । . acco पु. भा. अ. ९ ॥५८॥
SR No.010415
Book TitleMahavira Purana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddharak Karyalaya
Publication Year1917
Total Pages323
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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