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________________ ह वहै इहै जब मदीय मताधिकाई पृथ्वी फटे त्वरित आउ तहा समाई ।। कविता कवि की प्र-यक्ष अथवा स्मृतिजन्य अनुभूति का रमणीयार्थप्रतिपादक शब्दचित्र है। अपनी अनुभूति को पाठक की अनूभूति बना देने में ही कवि की सफलता है। काव्य का आनन्द लेने के लिए पाठक या श्रोता में सहृदयता और अध्ययन के विशेष भार तथा स्वगतत्व एवं परगतत्व के विशेष अभाव की नितान्त आवश्यकता है । सौन्दर्य की दृष्टि से द्विवेदी जी की कवितायो को इतिवृत्तात्मकमान कहना हृदयहीनता है । उनकी सभी रचनाएं प्रायोपान्त पढ जाइए, उनमें रति, करुणा, हास्य, निर्वेद, जुगुप्सा, क्रोध श्रादि भावो की विविधता है। इन विविध भावो के ऊपरी तल के नीचे एक अन्तःसलिला सरस्वती की धारा भी है.-हिन्दी के प्रति उनका श्रमाविक और साल्विक पूजानाव । यही उनकी कविताओं का स्थायी भाव है। किसी भी कारण से सही, कवि को जहा कहीं से जो कुछ भी मिला है उसे उसने मातृभाषा के मन्दिर मे श्रद्धा के साथ चढ़ा दिया है। - . ___'समाचारपत्रमम्पाद कस्तव', नागरी तेरी यह दशा' आदि रचनाएँ - हिन्दी को ही विपय मानकर लिखी गई है। अन्य विषयों पर लिखी गई 'पाशा', 'विधिविडम्बना आदि कवितायों में भी द्विवेदी जी का कवि हिन्दी को नहीं भूला है । 'याशा, का गौरवगान करमे के पश्चात् अन्त में उसने हिन्दी की राजाश्रयप्राप्ति की ही प्रार्थना की-- कडू प्रार्थना है हमारी सुनीजै. जगद्धात्रि आशे ! कृपाकोर कीजे । सबै देन की देवि ! सामर्थ्य तेरी, यही धारणा है सविस्वास मेरो ।। गुणग्राम की आगरी नागरी है, प्रजा की जु सन्मानसोजागरी है । मिले ताहि राजाश्रयनमकारी, __यही पूजियो एक आशा हमारी || 'विधिविडम्बना' में उसने विधाता की अन्य भूलों का निदर्शन करके अन्त में, अपनी हेन्दी-हितकामना के कारण ही, हिन्दी-साहित्य की दुर्दशा के प्रति विधाता की जघन्यतम ग्रपटुता का निर्देश किया--- १. 'द्विवेदी-काव्यमाला', पृ० २१३, २१४ । २ महा पर स्थायी' शब्द अपने शाब्दिक अर्थ में प्रयुक्त किया गया है ३. द्विवेदो प० २२२ - -
SR No.010414
Book TitleMahavira Prasad Dwivedi aur Unka Yuga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaybhanu Sinh
PublisherLakhnou Vishva Vidyalaya
Publication Year
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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