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________________ ६४ । दष्टायच्याच्छिन्ना पदावलो' आदि उक्तिया के द्वारा काव्य क शरीर का उल्लेख किया है , अानन्दवर्धन, अभिनव गुप्त, विश्वनाथ आदि ने बहुत पहले ही रस को काव्य की श्रात्मा स्वीकार किया था ।२ अानन्दवर्धन, पंडितराज जगन्नाथ श्रादि ने काव्यगत रम्यता को उमकी काति माना है। 'विविक्तवर्णाभरणासुन्वश्रुतिः' श्रादि प्राचीन कथना के आधार पर ही द्विवेदी जी ने अलंकृत वर्णो को कविताकान्ता का ग्राभरण कहा है। अभिनव गुप्त, मम्मट, पंडितराज आदि ने अपने साहित्यप्रन्या में रम की अलौकिकता की विवेचना की है ।५ द्विवेदी __ जी ने पडितराज जगन्नाथ के काव्यन्त ज्ञण को ही सर्वमान्य घोपित किया है । ६ रस की दृष्टि से द्विवेदी जी की कविताओं में काव्यमौदर्य इंटने का प्रयास निष्फल होगा। उनके 'विनयविनोद' में शान्त तथा विहारवाटिका', 'स्नेहमाला'. 'कुमारसम्भवसार' और 'सोहागरात' में शृंगाररस की व्यंजना हुई है। इन अनुवादों की रसात्मकता का श्रेय मूल रचनाकारो को ही है। द्विवेदी जी की मौलिक रचनाओं में केवल 'बालविधवाविलाप' ही रसानुभूति कराने में समर्थ हैं। इसमें अंकित बालविधवा की कारुणिक दशा का चित्र निस्सन्देह मर्मस्पर्शी है-- उच्छिष्ट, रूक्ष अरु नीरस अन्न ग्वैहौं, चांडालिनीव मुख बाहर {दि जैहौं । गालिप्रदान निशिवासर नित्य पैहौ, हा हन्त ! दुःखमय जीवन यो विहौ ।। 'रंडे । तुही अवसि मत्सुन लीन खाई' त्वन्मातु नाथ | जब नर्जिह यो रिसाई । ग यत्लासिद्धावयवातिरिक्तं विभाति लावण्यमिवांगनासु । 'ध्वन्यालोक', प्रथम उद्योत, चतुर्भ कारिका ! १. दंडी'काव्यादर्श', १, ६ । २ क. 'ध्वन्यालोक', प्रथम उद्योत, कारिका ५ और उसी पर अभिनव गुप्त का लोचन | ख. 'साहित्यदर्पण', प्रथम परिच्छेद, तीसरी कारिका । ३. क. विन्यालोक', प्रथम उद्योत, चौथी कारिका । ख. 'रसगंगाधर', प्रथम प्रानन, पृ० ४ । ४. भारवि, 'किरातार्जुनीय' ५. 'काव्य-प्रकाश', पृ० ५१ और 'रसगंगाधर', पृ० ४ । ६. "साहित्यदर्पण' के मत में 'वाक्यं रसात्मकं काव्यम्' और सर्वमान्य रसगंगाधर' में । 'रमणीयार्यप्रतिपापक शब्द काव्यम्' इस प्रकार की की गई है। हिन्दी कालिसस की
SR No.010414
Book TitleMahavira Prasad Dwivedi aur Unka Yuga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaybhanu Sinh
PublisherLakhnou Vishva Vidyalaya
Publication Year
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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