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________________ ७५ । द्विपदी जी क साहित्य सम्मलन सम्बन्धी पत्र व्यवहार स सिद्व है कि लागा क वारम्बार अाग्रह करने पर भी उहीन सम्मलन का सभापति व स्वीब्त नहा किया १ उनके निवदन को अस्वीकृत करते हुए द्विवेदी जी तारो के पेटेन्ट उत्तर दिया करते थे- अस्वस्थता के कारण म्वीकार करने में असमर्थ है। क्या सम्मेलन के लिए द्विवेदी जी सर्वदा ही अस्वस्थ रहे ? जो व्यक्ति अस्वस्थ रहकर भी असाधारण और घोर परिश्रम द्वारा 'सरस्वती' का इतना सुन्दर सम्पादन कर सकता था, क्या वह सम्मेलन के मभापतित्व के लिए अपना कुछ समय और शक्ति नहीं दे सकता था ? उनका सवास्थ्य ठीक नहीं था, 'सरस्वती' का कार्य ही उनकी पति से अधिक था, आदि कारण यदि निगधार नहीं तो गौण अवश्य धे। उनके पत्र की निम्नाकित रूपरेवा ज्यान देने योग्य है--- ०.."मेरे सिवा किसी अन्य व्यक्ति के अासीन होने में सभापति के श्रासन का यथेष्ट गौरव न होगा-इत्यादि अापकी उक्तियां भ्रमजात नही तो कौतूहलवर्द्धक अवश्य है । यदि मै भूलता नहीं तो कलकत्ते में पहले भी सम्मेलन हो चुका है और उस सम्मेलनका अधिपति कोई और ही था पर न तो कलकत्ते में हिन्दीप्रेमी निराश ही हुए, न हिन्दी साहित्य की लाज ही गई और न बगला के विद्वानो की दृष्टि मे मम्मेलन के सभापति के पद का गौरव त्रम हुश्रा। अपनी इस धारणा के प्रतिकूल मुझे तो किसी का कोई लेख या किसी का कोई वक्तव्य पढ़ने या सुनने को नहीं मिला। मुझे तो सब तरफ से सफलता ही सफलता के समाचार मिले । अतएव श्राप का भय निर्मुल जान पड़ता है । स्वागतकारिणी ममा खुशी सं किमी अन्य व्यक्ति को सभापति वरण करे।। सम्मेलन के सभापति का पद प्राप्त करने के लिए अपने मनोनीत सजना के पक्षपातियों मे, गत वर्ष तक, परस्पर व्यंग्यवचनों की बौछार, अशिष्टाचार, आक्षेप-प्रक्षेप और यदाकदा गाली गलौज तक होता आया है । ईश्वर ने बड़ी कृपा की जो मेरा नैरोग्य नाश करके मुझे ऐमे पद की प्राप्ति के योग्य ही न राना । विनय महावीर प्रसाद द्विवेदी "२ इम पत्र के अन्तिम दो बाक्य विशेष महत्व के है । उनसे स्पष्ट प्रमाणित है कि सम्मेलन १. क. नागरी प्रचारिणी सभा के कलाभवन में रक्षित पत्र-व्यवहार का बंडल ।। ख. द्विवेदी जी के पत्र और अनेक पत्रों की रूप-रेखाएं, , . , संख्या.३४. ३५. ४७, श्रादि, ना० ० सभा कार्यालय काशी। २ द्विमेदी जी के पत्र की रूप रेखा १० २ २१ ई० काशी नागरी प्रचारिसी समा
SR No.010414
Book TitleMahavira Prasad Dwivedi aur Unka Yuga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaybhanu Sinh
PublisherLakhnou Vishva Vidyalaya
Publication Year
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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